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India Nepal Kalapani Dispute: नेपाल ने फिर छेड़ा काली का राग
सार
उत्तराखण्ड में मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त रह चुके नृपसिंह नपलच्याल का गांव इसी क्षेत्र के नपलच्यू में है। गुंजी, नाभी और कूटी के एक दर्जन से अधिक आइएएस, आइपीएस, पीपीएस और पीसीएस अधिकारी उत्तराखण्ड और भारत सरकार की सेवा में हैं।
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पीएम मोदी और सुशीला कार्की।
- फोटो : ANI
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विस्तार
नेपाल ने लिपुलेख, लिम्पियाधुरा और काला पानी को दर्शाने वाले मानचित्र के साथ अपना 100 रुपये का नया करेंसी नोट जारी कर भारत के साथ दो सदी से भी पुराने सीमा विवाद को एक बार फिर हवा दे दी है। मई 2020 में के पी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली सरकार ने भी एक नया राजनीतिक मानचित्र जारी किया, जिसमें लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा क्षेत्रों को नेपाल का क्षेत्र दिखाया गया था।
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भारत और चीन के विदेश मंत्रियों के बीच नयी दिल्ली में गत 18 अगस्त को हुयी वार्ता में आपसी व्यापार के लिये जिन तीन नये रास्ते खोलने पर सहमति बनी है उनमें से एक लिपुलेख भी है जिस पर नेपाल ने आपत्ति जताई है।
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जिस कूटी यांग्ती नदी को नेपाल काली बता रहा है वह पश्चिम से पूरब की ओर बहती है। जिसमें दो किनारों की विभाजक दिशाएं पूरब पश्चिम नहीं बल्कि उत्तर -दक्षिण हैं। इस कूटी घाटी के निचले आबादी वाले क्षेत्र में नदी के दोनों ओर भारत और नेपाल के गांव हैं।
जबकि, भारत जिस नदी को काली मानता है वह उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। इसलिये संधि के हिसाब से पूरब में नेपाल के दार्चुला जिले के छांगरू, दिलीगाड़, तिंकर और कौआ गांव हैं, जबकि पश्चिम में भारत की गुंजी, नपलच्यू, रौंगकौंग, नाबी, कूटी, गर्ब्यांग और बुदी ग्राम सभाएं हैं।
उत्तराखण्ड में मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त रह चुके नृपसिंह नपलच्याल का गांव इसी क्षेत्र के नपलच्यू में है। गुंजी, नाभी और कूटी के एक दर्जन से अधिक आइएएस, आइपीएस, पीपीएस और पीसीएस अधिकारी उत्तराखण्ड और भारत सरकार की सेवा में हैं।
यह विवाद नया नहीं है जिसे नेपाल पिठले 208 वर्षों से यदाकदा उठाता रहा हैं। भारत जिस नदी को काली नदी मानता है, नेपाल उसकी जगह कूटी यांग्ती को असली काली नदी बताता है। ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच 2 दिसम्बर 1815 को सम्पन्न हुयी सुगोली की संधि में काली नदी को ही भारत और नेपाल के बीच विभाजन रेखा माना गया है।
नेपाल की नवीनतम आपत्ति इस बात को लेकर है कि दोनों देशों ने लिपुलेख से व्यापार खोलने पर संधि कर ली जबकि काली नदी की उसकी अपनी परिभाषा के अनुसार यह क्षेत्र नेपाल का भू भाग है।
भारत और चीन के विदेश मंत्रियों के बीच हुयी सहमति के परिणाम स्वरूप भारत की ओर से लिपुलेख, शिप्की लॉ और नाथू लॉ से प्राचीन व्यापारिक मार्ग खुलने हैं। लेकिन इस सहमति के बाद नेपाल ने अड़ंगा खड़ा करने के लिये एक बाद फिर नये नोट पर विवादित मानचित्र छाप कर पुराने विवाद को हवा दे दी।
भारत के लिये लिपुलेख दर्रा आर्थिक, सामरिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्व का है। यहीं से चीन के साथ व्यापार शुरू होने के साथ ही यही कैलाश मानसरोवर का रास्ता भी है। यही वह दर्रा है जो 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान सबसे मजबूत मोर्चा साबित हुआ था। इसलिये तभी से यहां पर भारत की सुरक्षा चौकियां स्थापित हैं।
हालांकि, नेपाल का यह सपना कभी साकार होने वाला नहीं है फिर भी नेपाल में भारत विरोधी तत्व सदैव काली नदी के विवाद को दोनों देशों के बीच तनातनी का मुद्दा बनाये रखेंगे। चीन भी ऐसे तत्वों को हवा देता रहेगा।
सुगोली में 2 दिसम्बर 1815 को नेपाल के महाराजा विक्रमशाह बहादुर शमशेर जंग के प्रतिनिधि राजगुरू गजराज मिश्र और चन्द्रशेखर उपाध्याय तथा कंपनी की ओर से ले0 कर्नल ब्रैडशॉ ने जिस संधि पर हस्ताक्षर किये थे, उसमें सतलज से लेकर घाघरा और मेची के बीच का सारा भूभाग अंग्रेजों के अधीन मान लिया गया था।
नेपाल इस संधि को तो मानता है, लेकिन वह कालापानी से 16 किमी दूर लिम्पिया धुरा से निकलने वाली उस नदी को काली नदी मानता है जिसे भारत कूटी यांग्ती मानता रहा हैं।
अगर नेपाल का दावा मान लिया जाए तो न केवल लिपुलेख दर्रा और कालापानी अपितु उत्तराखण्ड राज्य के पिथौरागढ़ जिले की 7 ग्राम सभाएं भी नेपाल में चली जाती हैं। सुगोली की संधि की धारा 5 में साफ लिखा गया है कि काली नदी के पश्चिम वाला हिस्सा ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिक्षेत्र होगा और उस क्षेत्र पर तथा क्षेत्र वासियों पर नेपाल का राजा या उसके उत्तराधिकारी कभी दावा नहीं करेंगे।
इन दोनों जलधाराओं का गुंजी के निकट मनीला में संगम होता है। तवाघाट में काली नदी में धौली, जौलजीवी में गोरी, पीपली में चरमा और पंचेश्वर में सरयू नदियां मिलती हैं। टनकपुर से काली नदी शरदा और लखीमपुर से घाघरा हो जाती है।
दरअसल, सुगोली की संधि के बाद से ही नेपाल अग्रेजों से ही काली नदी को लेकर विवाद करने लग गया। कारण यह कि संधि के समय उस क्षेत्र का कोई नक्शा ही नहीं था।
वह क्षेत्र इतना दुर्गम था कि उस समय के शासकों के लिये उससे राजस्व की कोई उम्मीद ही नहीं थी। हिमालयन गजेटियर ( सन् 1884: वाल्यूम-2 पार्ट-2: 679-680) में ई.टी. एटकिन्सन लिखता है कि संधि के अनुसार टौंस से शारदा तक पूरा क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ गया, मगर उत्तर में केवल एक छोटे तथा महत्वहीन क्षेत्र पर विवाद बना रहा।
इसके साथ ही संधि के अनुसार ब्यांस परगना के दो हिस्से हो गये थे, जबकि अब तक वह कुमाऊं का अभिन्न हिस्सा था। वैसे भी यह जुमला और डोटी से अलग क्षेत्र था।
नेपाल ने कुमांऊ के कमिश्नर और नेपाल के रेजिडेंट ई0 गार्डनर को 4 फरबरी 1817 को परगना ब्यांस में काली के पूर्व में पड़ने वाले तिंकर और छांगरू गावों पर अपना दावा पेश करते हुये पत्र लिखा तो वे सचमुच काली नदी के पूरब में थे, इसलिये उन्हें डोटी के तत्कालीन सूबेदार बमशाह के अधिकार में दे दिया गया। इससे भी नेपाल सन्तुष्ट नहीं हुआ और उसने कूटी तथा नाभी की भी मांग करनी शुरू कर दी।
इस पर नेपाल के रेजिडेंट एवं कुमाऊं कमिश्नर ने कैप्टन वेब से नेपाल के दावे की जांच कराई तो उसने सन् 1818 तक कुमाऊं का व्यापक दौरा किया। 11अगस्त और 20 अगस्त 1817 को सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में वेब ने माना कि पवित्र कालापानी चश्मे से निकलने वाली, मगर कम पानी वाली जलधारा ही सदैव काली की मुख्य शाखा मानी जाती रही है। काला पानी के कारण ही उसका नाम काली रखा गया।
इस नदी का काली नाम तब तक रहता है जब तक वह पहाड़ों में बहती है और मैदान में उतरने पर वह शारदा नदी हो जाती है। इसलिये ब्रिटिश सरकार ने नेपाल का दावा खारिज कर नाभी और कूटी गावों को अपने पास ही रखने का निर्णय लिया और तब से ये गांव ब्रिटिश ब्यांस के ही हिस्से रहे। ब्यांस घाटी के ये सभी गांव रं भोटिया जनजाति के हैं।
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