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यह कैसा विमर्श: औपनिवेशिक शासन के अत्याचार इतिहास और उसके विरुद्ध उठी राष्ट्रीय चेतना संप्रदायवाद
सार
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का ‘आनंद मठ’ किसी धार्मिक श्रेष्ठता का ग्रंथ नहीं, बल्कि औपनिवेशिक दमन से कराहते समाज की करुण पुकार का साहित्यिक रूप है।
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लोकसभा में वंदे मातरम पर चर्चा।
- फोटो : संसद टीवी वीडियो ग्रैब
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विस्तार
भारत की सांस्कृतिक स्मृति में ऐसा कोई दूसरा साहित्यिक या गीतात्मक प्रतीक नहीं है, जिस पर उतना विवाद हुआ हो, जितना ‘आनंद मठ’ और ‘वंदे मातरम्’ पर हो रहा है। आश्चर्य यह नहीं कि विवाद है, आश्चर्य यह है कि वे लोग इस विवाद को हवा देते हैं, जिनकी वैचारिक दृष्टि भारत के इतिहास, सौंदर्यशास्त्र और राष्ट्रवाद की आत्मा से सबसे दूर है।
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यह विवाद साहित्य का नहीं, बल्कि यह उन राजनीतिक धाराओं का संघर्ष है, जो भारतीय राष्ट्रवाद को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से काटकर उसे खोखला, यादहीन और गुनगुना बनाना चाहती हैं।
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बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का ‘आनंद मठ’ किसी धार्मिक श्रेष्ठता का ग्रंथ नहीं, बल्कि औपनिवेशिक दमन से कराहते समाज की करुण पुकार का साहित्यिक रूप है। संन्यासी विद्रोह केवल कुछ साधुओं का प्रतिरोध नहीं था, वह सत्ता के अत्याचार, आर्थिक शोषण और सामाजिक विघटन के विरुद्ध जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी।
इसे ‘हिंदू बनाम मुस्लिम’ का संघर्ष कह देने वाले लोग इतिहास नहीं, अपनी राजनीतिक सुविधा पढ़ते हैं। यह अजीब विडंबना है कि आजाद भारत में ऐसे आलोचकों की संख्या बढ़ी है, जो औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों को तो इतिहास का हिस्सा मानते हैं, लेकिन उसके विरुद्ध उठी राष्ट्रीय चेतना को संप्रदायवाद कहकर खारिज कर देते हैं। यह आलोचना नहीं, सांस्कृतिक हीनता है।
‘वंदे मातरम्’ को सांप्रदायिक कहने का तर्क भी इसी हीनता से उपजा है। गीत में मातृभूमि को ‘दुर्गा’ कहा गया है तो क्या? भारत की कविता, पुराण, लोकगीत और दर्शन में प्रकृति, भूमि, नदियों, पर्वतों को देवत्व दिया गया है। यह विश्वास पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संवेदना है। वह संवेदना, जिसने हजारों वर्षों की सभ्यता को एक सूत्र में बांधा है।
पश्चिमी देशों की ‘मदर लैंड’ उन्हें सांस्कृतिक प्रतीक लगती है, लेकिन भारत की ‘भारत माता’ उन्हें अचानक धार्मिक प्रतीक लगने लगती है। यह असमानता क्यों? क्योंकि यहां आपत्ति धर्म से अधिक राजनीति पर आधारित है।
राजनीति की इस भूलभुलैया में सबसे दिलचस्प भूमिका कांग्रेस निभाती है, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ‘वंदे मातरम्’ को अपना शस्त्र बनाया। आज उससे दूरी बनाकर खड़ी है। कांग्रेस का यह दोहरा चरित्र किसी से छिपा नहीं है। आंदोलन के समय यह गीत राष्ट्र की आत्मा था और आज कांग्रेस उसी गीत के उल्लेख से घबराती दिखती है।
डर किस बात का है? निश्चित ही अल्पसंख्यक वोटों के नाराज होने का है? या इस संभावना का कि ‘वंदे मातरम्’ की स्वाभाविक राष्ट्रीयता उस ‘सेक्युलरिज्म’ को झूठा साबित कर देगी, जो केवल चुनावी पैंतरा बनकर रह गया है? कांग्रेस का संकट गीत या उपन्यास नहीं, बल्कि अपनी स्वयं की इतिहासिक भूमिका है।
यदि वह ‘वंदे मातरम्’ को तुष्टीकरण की राजनीति में बलि चढ़ाए तो वह गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, सबको आइडियोलॉजिकल अनाथ बना देती है, लेकिन यदि वह गीत का समर्थन करे तो उसका पूरा ‘नया सेक्युलर नैरेटिव’ ढह जाता है। इस दुविधा ने कांग्रेस को वैचारिक रूप से इतना कमजोर कर दिया है कि आज वह अपने ही संघर्षों की प्रतीक-धरोहरों को संदिग्ध बनाने में अग्रणी दलों की भाषा बोलने लगी है।
वामपंथी दलों का रुख भी इससे कम विरोधाभासी नहीं है। उनके लिए भारतीय राष्ट्रवाद तभी स्वीकार्य है, जब उसकी परिभाषा मार्क्सवादी पाठ्यक्रम में फिट हो जाए। इसलिए वे ‘आनंद मठ’ को हिंदुत्व की बुनियाद कहते हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति का हर सांस्कृतिक तत्व उन्हें ‘राष्ट्रवाद का अपराध’ लगता है।
यह वैचारिक संकीर्णता वर्षों से भारतीय समाज को अपनी जड़ों से अलग करने की कोशिश में लगी रही है। एआईएमआईएम जैसे राजनीतिक दल धार्मिक आपत्ति की आड़ में सांस्कृतिक प्रतीकों को चुनौती देते हैं, जबकि भारतीय संविधान कहीं भी ‘वंदे मातरम्’ को अस्वीकार नहीं करता है। विरोध केवल राजनीतिक मुद्रा है, सिद्धांत नहीं।
संसद में वंदे मातरम् गीत के 150 वर्ष पूर्ण होने पर चर्चा हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वंदे मातरम् को भारत की सांस्कृतिक आत्मा और स्वतंत्रता संग्राम की शक्ति का जीवंत प्रतीक बताया उनका स्पष्ट कहना है कि यह गीत किसी धर्म का नहीं, बल्कि मातृभूमि के प्रति समर्पण और भारतीयता के गौरव का घोष है।
वंदे मातरम् हमारे राष्ट्रत्व की भावना का शाश्वत मंत्र है, जिसे विवादों में घसीटना देश की सांस्कृतिक चेतना को कमजोर करना है।
भाजपा भी इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए वंदे मातरम् को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, आत्मगौरव और सभ्यतागत निरंतरता का आधार मानती है और इसके विरोध को राजनीतिक संकुचन करार देती है।
राजनीतिक खेलों के बीच सबसे अनदेखी आवाज आम जनता की है। जनता का बड़ा हिस्सा ‘वंदे मातरम्’ को अपनी अस्मिता, अपनी संस्कृति और अपने राष्ट्रगौरव से जोड़कर देखता है। उनके लिए यह गीत विवाद का विषय नहीं, भावनात्मक आधार है।
वहीं अल्पसंख्यक समुदाय के सामान्य लोगों में उतनी तीखी असहजता नहीं है, जितना राजनीतिक दलों के बयान बताते हैं। असल समस्या यह है कि भारत की सांस्कृतिक प्रतीकों को बार-बार राजनीतिक रंग में डुबोकर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे विवाद घटता नहीं, बढ़ता है।
प्रश्न यही है कि भारत किस प्रकार का राष्ट्र बनेगा। वह राष्ट्र, जो अपनी जड़ों से ताकत लेता है, अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को सम्मान देता है और अपने ऐतिहासिक संघर्षों को गर्व से याद करता है? या वह राष्ट्र, जो अपनी पहचान को राजनीतिक सुविधाओं के अनुसार ढालता है, अपनी सांस्कृतिक स्मृति को संदेह की दृष्टि से देखता है और अपने ही राष्ट्रगान-समान प्रतीकों से संकोच करता है?
‘आनंद मठ’ और ‘वंदे मातरम्’ का विवाद इसलिए स्थायी है, क्योंकि यह केवल अतीत की बहस नहीं है, यह भारत के भविष्य की दिशा का संकेत भी है। यह तय करेगा कि हमारा राष्ट्रवाद सांस्कृतिक चेतना पर आधारित होगा या राजनीतिक समीकरणों पर।
यदि कोई सत्य स्पष्ट दिखाई देता है तो वह यह है कि भारत अपनी सांस्कृतिक आत्मा को जितना नकारने की कोशिश करेगा, उतना ही वह अपनी ऐतिहासिक शक्ति से दूर होता जाएगा। सवाल यह नहीं कि ‘वंदे मातरम्’ विवादास्पद क्यों है? सवाल यह है कि एक स्वतंत्र राष्ट्र अपनी ही आत्मा के प्रतीक से क्यों भयभीत हो जाता है? किसके दबाव में।
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