राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू: आदिवासी समुदाय और सपने देखने वाली महिलाओं की प्रतिनिधि
द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। एक आदिवासी महिला के लिए यह सफ़र तय करना आसान नहीं रहा होगा। इसका अंदाज़ केवल इस बात से लगाया जा सकता है आज़ादी के 74 साल बीतने के बावजूद मुर्मू पहली आदिवासी और दूसरी महिला राष्ट्रपति बनने जा रही हैं।
विस्तार
जब किसी परिवार, मोहल्ले या गांव की पहली महिला शिक्षा की ओर कदम बढ़ाती है तब जिन मुश्किलों का सामना उसे करना होता है उसका अंदाज़ लगाना भी मुश्किल है। वहीं जब अपने गांव की पहली कॉलेज जाने वाली महिला देश की पहली महिला बनने जा रही हो तो सम्मान केवल उस महिला का ही नहीं बढ़ता बल्कि उन तमाम महिलाओं का भी सम्मान बढ़ता है जो सपने देखती हैं और उसे पूरा करने के लिए हर बाधा, हर विरोध का सामना करती हैं।
द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। एक आदिवासी महिला के लिए यह सफ़र तय करना आसान नहीं रहा होगा। इसका अंदाज़ केवल इसी बात से लगाया जा सकता है आज़ादी के 74 साल बीतने के बावजूद मुर्मू पहली आदिवासी और दूसरी महिला राष्ट्रपति बनने जा रही हैं।
चुनौतीपूर्ण रहा है द्रौपदी मुर्मू का जीवन
राष्ट्रपति द्रौपदी का सफ़र बताता है कि क्लर्क की नौकरी करते हुए 1997 में उन्होंने नगर पंचायत का चुनाव लड़कर और जीतकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। इससे यह तो जरुर साफ़ होता है कि अपने लंबे करियर में उनका ज़मीन से जुड़ाव रहा है।
ओड़िसा में राज्पाल रहते हुए उन्होंने औद्योगिक इस्तेमाल के लिए ज़मीन के हस्तांतरण संबंधी विधेयक को करीब एक साल तक रोके रखा। ये कुछ बातें हमें उम्मीद दिलाते हैं कि द्रौपदी के राष्ट्रपति बनने से कम से कम आदिवासियों और महिलाओं के मुद्दे नज़र तो आएंगे। जो आदिवासी समाज सदियों से अलग-थलग रहा है उसके मुद्दे और समस्याएं समझना और उसके समाधान की ओर कदम बढ़ाना बहुत जरूरी है।
बिहार के कुछ इलाकों में अध्ययन के दौरान आदिवासी समुदाय को करीब से देखने का अवसर मिला। 2011 की जनगणना को मानें तो इनकी आबादी 13 लाख से ऊपर है। अगली जनगणना में इसमें बढ़ोतरी ही होगी लेकिन दुख की बात यह है कि इनके विकास पर सरकार का रवैया थोड़ा उदासीन रहा है। शायद किसी भी पार्टी के लिए ये वोट बैंक नहीं बन पा रहे इसलिए इनके मुद्दे अनसूने रह जाते हैं।
आदिवासी समाज की कठिनाइयां
कृषि और जंगल, आदिवासी समाज के जीवन-यापन के मुख्य आधार रहे हैं लेकिन इसमें कई तरह की कठिनाइयां आ रही हैं। कृषि के लिए ज़मीन की कमी, पारंपरिक तरीके से खेती, सिंचाई के साधनों की कमी और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता ने कृषि कार्य को पहले ही मुश्किल बना दिया है। उसपर जंगलों के कटने से इनका जीवन-यापन और भी ज्यादा मुश्किल हो गया है।
समुदाय के ज्यादातर लोग काम की तलाश में दूसरे शहर या राज्य में पलायन कर रहे हैं। कोरोना काल में इनकी हालत और भी ज्यादा ख़राब हो गई, इसके बावजूद ये हमेशा उपेक्षित ही रहे।
आदिवासी समुदाय शुरुआत से ही मुख्य आबादी से अलग-थलग रहा है, लेकिन अब जब यह समाज मुख्यधारा में आना चाहता है तो इसे अनगिनत बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है जिसे समझने की जरूरत है। इनके गांव में न तो सड़कें हैं, न यातायात की सुविधा।
ग़रीबी और भूखमरी इस हद तक है कि ये अपने बच्चों को स्कूल भेजने की जगह मजदूरी करवाने के लिए मजबूर हैं, वो काम भी नियमित रूप से नहीं मिलता। कर्ज बढ़ता जाता है और आमदनी का कोई स्थाई जरिया नहीं।
दूसरी ओर आदिवासियों की समृद्ध संस्कृति भी क्षीण होती जा रही है। पलायन, अन्य जातियों से जुड़ाव और तकनीकी विकास ने आदवासी युवाओं में अपनी संस्कृति के प्रति उदासीनता भर दी है जिससे उनकी अपनी पहचान खत्म हो रही है। उनकी कला को फिर से समृद्ध करने की जरूरत है, जो देश की धरोहर है। आदिवासियों ने जिस तरह से प्रकृति से प्रेम किया है उससे हर किसी को सीख लेने की जरूरत है।
आज जब देश की कुल साक्षरता दर 73 प्रतिशत है (जो अभी भी बहुत कम है) आदिवासियों की साक्षरता दर केवल 59 प्रतिशत ही है। उसमें भी जब महिलाओं की बात आती है तो आदिवासी पुरुषों के 69 प्रतिशत साक्षरता दर के मुकाबले आदिवासी महिलाओं की साक्षरता दर केवल 49 प्रतिशत ही है। जैसे-जैसे उच्च शिक्षा की ओर बढ़ते हैं यह अंतर बढ़ता ही जाता है।
आदिवासी समुदाय का पिछड़ापन
जागरूकता का अभाव और साथ में शिक्षण संस्थाओं की कमी के कारण यह समाज आज तक पिछड़ा हुआ है। कृषि कार्य हो या फिर मजदूरी का काम यहां महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से हमेशा से अधिक रही है लेकिन उनके पास कोई अधिकार नहीं हैं। आदिवासी गांवों में स्वास्थ्य व्यवस्था और गंदगी एक चिंता का विषय रहा है। यहां साफ़-सफाई के प्रति जागरूकता की कमी के कारण कई बीमारियां फैलती रहती है। इलाज़ के लिए लोग झाड-फूंक, झोलाछाप डॉक्टर या जड़ी-बूटियों पर निर्भर रहते हैं।
सरकारी अस्पताल की लचर व्यवस्था से इलाज़ सही से नहीं हो पाता और प्राइवेट डॉक्टर तथा अस्पताल का खर्च वहन करना इनके लिए नामुमकिन जैसा है। इस मामले में भी महिलाओं की स्थिति काफी खराब है। सरकार प्रयासों के बावजूद आज भी प्रसव के लिए ये लोग अस्पताल जाने से परहेज ही करते हैं।
NFHS की रिपोर्ट्स के अनुसार भारत में शिशु मृत्यु दर करीब 44 प्रतिशत और पांच वर्ष के बच्चों की मृत्यु दर 57 प्रतिशत है। कई आदिवासी समुदाय आज भी गर्वनिरोधक के लिए जड़ी-बूटी अथवा घरेलू उपायों पर भरोसा करते हैं, जो कई बार कारगर नहीं होता। कुल मिलाकर प्रजनन पूर्व तथा पश्चात् इन्हें कई परेशानियों से जूझना पड़ता है। महिलाओं में एनीमिया की समस्या आम है।
राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के बहाने ही सही आदिवासी समुदाय चर्चा में है। हमारे नीति नियंताओं को आदिवासी समुदाय के बारे में नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है। कई राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के दौरान चर्चित रहे हैं, कुछ ऐसी ही उम्मीद महिलाओं और आदिवासी समुदाय में खासतौर से आदिवासी समुदाय में द्रौपदी मुर्मू से जगी है।
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