नेपाल सियासत: आखिर ओली और भंडारी को सत्ता के अलावा और कुछ क्यों नज़र नहीं आता?
नेपाली सुप्रीम कोर्ट की ओर से संसद बहाली के फैसले को अभी दो महीने भी नहीं हुए। एक बार फिर ये मामला उसी के दरवाज़े पर पहुंचने को तैयार है। प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली तो अपनी मनमानी और अड़ियल रवैये से लगातार निशाने पर रहे ही हैं, लेकिन राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी जिस तरह खुलेआम संवैधानिक मर्यादाओं को ध्वस्त करने में लग गई हैं, उससे अब ज्यादातर सवाल उनपर उठने लगे हैं।
पिछले करीब 6 साल से लगातार राष्ट्रपति की कुर्सी पर बरकरार रहने वाली भंडारी के एक बार फिर संसद भंग करने और नवंबर में चुनाव करने के ऐलान के बाद अब वहां ये आम चर्चा है कि नेपाल में सत्ता की सियासत अपने सबसे घृणित दौर में पहुंच गई है।
शुक्रवार को जिस तरह नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनाने के लिए विपक्ष के 149 सांसदों ने अपने हस्ताक्षर वाला पत्र राष्ट्रपति को सौंपा, तो मानों उनके पैरों तले की जमीन खिसक गई। उन्हें ये भरोसा नहीं था कि ओली को हटाने के लिए विपक्ष सचमुच कागजी तौर पर एकजुट हो चुका है। भंडारी ने तब कानून पढ़कर फैसला लेने के बहाने विपक्ष को टाला, ये भी कहा कि ओली भी ऐसा ही दावा कर रहे हैं, ऐसे में ये देखना होगा कि विपक्ष के पत्र में कितनी सच्चाई है।
जाहिर है राष्ट्रपति की मंशा जाहिर हो गई थी। इसके चंद ही घंटों बाद नेपाल की संसद को दोबारा भंग करने का ऐलान होता है और चुनाव की तारीखें भी घोषित हो जाती हैं। यानी नवंबर तक अंतरिम प्रधानमंत्री ओली ही बने रहेंगे, इसके लिए ये रास्ता निकाल लिया जाता है। नेपाल की सर्वोच्च अदालत को पिछले एक-डेढ़ महीने के नाटक का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है कि देखिए हमने संसद बहाल कर दी, संसद में शक्ति परीक्षण भी करवा लिया, अब हालात ऐसे हैं कि संसद फिर से भंग करनी पड़ रही है।
इससे पहले ओली और भंडारी ने मिलकर नवंबर 2020 में अचानक संसद भंगकर मई में चुनाव कराने का ऐलान किया था। यानी आज भी हालात वही हैं, रास्ता भी वही चुना गया है बस इस बार सुप्रीम कोर्ट की आंखों में धूल झोंककर ऐसा किया गया। यही एहसास विपक्षी दल एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट को कराने को मजबूर हो गए हैं।ओली और भंडारी की मनमानियों के खिलाफ नेपाल में अब विपक्ष एकजुट हो गया है। बल्कि पहले से और ज्यादा मजबूती से एकजुट हुआ है। नेपाली कांग्रेस से तमाम विरोधों के बावजूद अब ओली को हटाने के नाम पर प्रचंड भी साथ हैं, जनता समाजवादी पार्टी के नेता भी साथ हैं और यहां तक कि ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल के माधव कुमार नेपाल भी खुलकर उनके विरोध में आ गए हैं।
विश्वास मत हारने के बाद भंडारी ने जिस तरह विपक्ष के दावे को दरकिनार कर अफरा तफरी में ओली को फिर से प्रधानमंत्री बना दिया और एक महीने में दोबारा विश्वासमत हासिल करने की बात कही, वही अचानक पलट गईं और ओली के कहने पर महज एक हफ्ते में ही विपक्ष को सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्याबल दिखाने का अल्टीमेटम दे दिया। इसके बावजूद विपक्ष ने नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेरबहादुर देउबा के नेतृत्व में सरकार बनाने को लेकर तैयारी कर ली, राष्ट्रपति को 149 सांसदों के दस्तखत भी दे दिए, लेकिन भंडारी ने फिर इसे मानने से इंकार किया। ओली के साथ तत्काल नई रणनीति बनाई और संसद भंग करने का ऐलान कर दिया।
दरअसल, ओली जानते हैं कि मामला अदालती और संवैधानिक दांव पेंचों में उलझा कर एक बार फिर लंबा खींचा जा सकता है। पहले तो मई में चुनाव की बात थी, अब इस बार नवंबर में चुनाव का ऐलान कर मामले को 6 महीने और लटका दिया गया है। उन्हें मालूम है कि अब विपक्ष क्या क्या कर सकता है, फिर से सुप्रीम कोर्ट जा सकता है, राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की मांग भी कर सकता है, लेकिन इससे ओली जैसे व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता। बल्कि 6 साल से राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठकर सारे दांव पेंच करने वाली भंडारी को भी अब इस खेल में मजा आने लगा है। लेकिन नेपाल की सियासत के लिए ये एक खतरनाक और अमानवीय दौर है। जब पूरा देश कोविड की दूसरी लहर की मार से परेशान है, लोगों की जान पर बन आई है, ऐसे में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसी संस्थाएं इस गंदे सियासी खेल में उलझी हैं।
दरअसल, बिद्या देवी भंडारी और ओली के पुराने सियासी रिश्ते रहे हैं। बिद्या देवी के पति मदन भंडारी नेपाल के एक सम्मानित और जाने माने कम्युनिस्ट नेता रहे थे। 1993 से पहले बिद्या देवी को कम ही लोग जानते थे। लेकिन उसी साल मदन भंडारी की सड़क हादसे में मौत के बाद से बिद्या देवी भंडारी अचानक सुर्खियों में आ गईं। 1994 में वो पहली बार संसद के लिए चुनी गईं और 1999 में दूसरी बार। 1980 से वो सीपीएन (एमएल) की सदस्य रहते हुए छात्र राजनीति में भी सक्रिय रही थीं।
सीपीएन-यूएमएल में वो 1997 से हैं। तब सीपीएन-यूएमएल के माधव नेपाल प्रधानमंत्री बने और बिद्यादेवी भंडारी को रक्षा मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया। भंडारी ने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी काफी काम किया है और फोर्ब्स की 100 सबसे ताकतवार महिलाओं की सूची में भी वो शामिल रही हैं। जाहिर है अपने पार्टिगत कमिटमेंट और उन रिश्तों की वजह से भंडारी राष्ट्रपति होकर भी अपने उस वैचारिक और व्यक्तिगत रिश्तों के दायरे से बाहर नहीं निकल पातीं और संवैधानिक मर्यादाएं उनके लिए तब कोई मायने नहीं रखती हैं।
ऐसी स्थिति में पिछले 6 सालों से देश की पहली महिला राष्ट्रपति होने का गौरव का ताज सर पर सजाए भंडारी के लिए अब ओली जैसे अपने राजनीतिक ‘गुरुओं’ का हित साधने के अलावा कुछ और नजर नहीं आ रहा। उन्हें लगता है कि इतनी मुश्किलों से मिली ‘लेफ्ट’ की सत्ता को किसी भी हाल में जाने नहीं देना है, चाहे इसके लिए साम- दाम-दंड-भेद क्यों न इस्तेमाल करना पड़े। लेकिन ओली और भंडारी ये भूल चुके हैं कि इससे तथाकथित ‘लेफ्ट’ की छवि को वो इतना धूमिल कर रही हैं कि फिर उसपर भरोसा कर पाना आम लोगों के लिए आसान नहीं होगा।
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