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जानना जरूरी है: संस्कृति के पन्नों से....पूर्वजन्म के पुण्य ने नरक से बचाया
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सार
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विस्तार
निषध नगर में हेमकुंडल नाम का एक वैश्य रहता था। वह श्रेष्ठ कुल में जन्मा, कर्मठ, धर्मप्रिय और ईश्वर-भक्त था। वह हर सुबह देवता, ब्राह्मण तथा अग्नि की पूजा करता, फिर खेती-बाड़ी और व्यापार में लग जाता। उसका व्यापार बहुत फैला हुआ था, क्योंकि वह दूध, दही, मट्ठा, फल, मूल, धान्य, शक्कर, घी, वस्त्र, धातुएं और अन्य कई वस्तुएं बेचता था। इसी तरह वर्षों तक मेहनत व ईमानदारी से उसने काफी स्वर्ण मुद्राएं कमा लीं।हेमकुंडल के सिर के बाल जब सफेद हो गए, तो उसके भीतर वैराग्य उत्पन्न हो गया। एक दिन उसने सोचा-‘धन तो नश्वर है, पर धर्म शाश्वत है। इसलिए मुझे धर्म के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।’ यह सोचकर उसने अपने धन का छठा भाग धर्म-कार्य में लगाने का निश्चय किया। उसने विष्णु व शिवजी के मंदिर बनवाए, पोखर व बावलियां खुदवाईं, वृक्ष लगाए तथा सुंदर पुष्प वाटिकाएं बनवाईं। नगर के चारों ओर विश्राम स्थल बनवाए तथा दिन भर अन्न-जल बांटने की व्यवस्था की। हेमकुंडल के पुत्र श्रीकुंडल व विकुंडल जब जवान हो गए, तो हेमकुंडल ने उन्हें घर की जिम्मेदारी सौंप दी और खुद वन में जाकर तपस्या करने लगा। वहां उसने गोविंद की भक्ति में शरीर त्याग दिया और अंततः विष्णु धाम को प्राप्त हुआ। किंतु उसके दोनों पुत्र, अपने पिता के गुणों के बजाय धन पर गर्व करने लगे। दोनों भाई दुराचारी, व्यसनी और मद्यपान में लिप्त हो गए। संगीत, नृत्य एवं वेश्याओं में रमकर उन्होंने सारा धन उड़ा दिया।
उन्होंने न किसी सत्पात्र को दान दिया, न देवपूजा की, न ही ब्राह्मणों को अन्नदान किया। जल्द ही उनकी संपत्ति समाप्त हो गई। बंधु-बांधवों ने मुंह मोड़ लिया और दोनों दीन होकर नगर छोड़ वन में जा बसे।
अब वे चोरी व हिंसा करने लगे। एक दिन बड़ा भाई पहाड की ओर गया, जहां सिंह ने उसे मार डाला; छोटा भाई वन में गया, तो सर्प के डसने से उसकी मृत्यु हो गई।
दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई। यमदूत उन्हें बांधकर यमराज के दरबार में ले गए। यमराज ने आदेश दिया कि बड़े भाई को नरक में डाल दो और छोटे को स्वर्ग भेज दो। दूतों ने श्रीकुंडल को नरक में झोंक दिया तथा छोटे भाई को लेकर स्वर्ग की ओर चले। रास्ते में विकुंडल ने पूछा, 'देवदूत ! हम दोनों ने जीवन समान ढंग से जिया, तो फिर मेरा भाई नरक में और मैं स्वर्ग में क्यों?' दूत ने कहा, 'विकुंडल ! तुम्हारे पिता के स्वमित्र नाम के एक ब्राह्मण मित्र थे। वह यमुना तट पर तपस्या करते थे। उनकी संगति में रहकर तुमने दो बार माघ मास में यमुना में स्नान किया। एक स्नान ने तुम्हारे पाप मिटाए और दूसरे ने तुम्हें स्वर्ग का अधिकारी बनाया।' विकुंडल ने कहा, 'गंगाजल और सत्पुरुषों के वचन सचमुच पापों को मिटाने वाले हैं। क्या मेरे भाई के उद्धार का कोई उपाय नहीं है?' देवदूत बोला, 'उपाय है, लेकिन तुम्हें अपना एक संचित पुण्य उसे अर्पित करना पड़ेगा।' विकुंडल ने पूछा, 'मेरा वह कौन-सा पुण्य है?' देवदूत ने उत्तर दिया, 'पूर्व जन्म में तुम एक ब्राह्मण थे। एक दिन निर्मोह, जितकाम, ध्यानकाष्ठ और गुपाधिक नाम के चार संन्यासी तुम्हारे घर आए थे। वे भूखे-प्यासे थे। तुमने उन्हें प्रणाम किया। फिर उनके चरण धोए, चरणोदक माथे से लगाया और उन्हें प्रेम से भोजन कराया। उस सेवा से तुम्हें जो पुण्य प्राप्त हुआ था, उसे तुम अपने भाई को दे दो, तो उसका उद्धार हो जाएगा।'
विकुंडल फौरन राजी हो गया। इतना कहते ही स्वर्गलोक में पुष्प वर्षा होने लगी और नरक में बैठा श्रीकुंडल मुक्त हो गया। दोनों भाइयों का फिर से मिलन हो गया तथा देवताओं ने उनके सम्मान में जयघोष किया। तब देवदूत प्रसन्न होकर बोला, 'मनुष्य का पुण्य कभी व्यर्थ नहीं जाता। एक सत्कर्म-चाहे वह किसी पूर्वजन्म का ही 5:00 क्यों न हो-अंततः पतन से बचा लेता है।' फिर दोनों भाई, अपने पापों से मक्त होकर, दिव्य विमान में बैठ स्वर्गलोक की ओर चले गए।