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पुस्तक चर्चा: आंबेडकर के सम्मान में... पहचान की राजनीति पर प्रहार
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सार
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डॉ आंबेडकर
- फोटो :
सोशल मीडिया
विस्तार
किताबों की मेरी सूची में चार सबसे प्रमुख हैं, जिन्हें हर भारतीय को पढ़ना चाहिए। प्रकाशन वर्ष के क्रम के अनुसार ये हैं, मोहनदास करमचंद गांधी की हिंद स्वराज (1909), रवींद्रनाथ टैगोर की नेशनलिज्म (1917), भीमराव आंबेडकर की एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (1936) और जवाहरलाल नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया (1946)। ये रचनाएं समयोचित और कालातीत, दोनों हैं, और ये उस भारत से संवाद करती हैं, जिनमें इनका प्रकाशन हुआ, लेकिन ये उस भारत से भी संवाद करती हैं, जिसमें इनके लेखकों को गुजरे खासा वक्त हो चुका है।
इनमें गांधी की पुस्तक हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की भावुक वकालत करने और राजनीतिक विवादों को निपटाने के साधन के रूप में हिंसा के उपयोग के सैद्धांतिक विरोध के कारण संभवतः सबसे उल्लेखनीय है। टैगौर अज्ञात भय से उपजे राष्ट्रवाद से लेकर जापान और अमेरिका के युद्धोन्मादियों से उपजे खतरों को लेकर आगाह कर रहे थे और अब सौ से भी कुछ अधिक वर्षों के बाद उनके शब्दों को युवा भारतीयों को पढ़ना चाहिए, जिन्हें यह दावा कर बहकाया जा रहा है कि उनका देश दुनिया की अगुआई करने के लिए नियत है। आंबेडकर की रचना भारतीय संस्थाओं की सर्वाधिक चारित्रिक और सर्वाधिक भेदभाव वाली जाति व्यवस्था पर केंद्रित है और व्याख्या करती है कि, अगर हमारे समाज को अधिक मानवीय आधार पर खुद को नवीकृत करना है, तो इसका उन्मूलन क्यों जरूरी है।
भारतीय संस्कृति के गहरे स्तरित और अनिवार्य रूप से बहुलवादी विकास पर नेहरू के विचार हिंदुत्व की एकीकृत, एकरूपतावादी, विचारधारा के लिए एक सीधी चुनौती है, जो अकेले एक धर्म (और अक्सर एक भाषा) के साथ राष्ट्रीय पहचान की पहचान करती है।
निस्संदेह इन चार किताबों में आंबेडकर की रचना अपने गठन और प्रस्तुति में सबसे सुसंगत है। एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) हिंद स्वराज, नेशनलिज्म या द डिस्कवरी ऑफ इंडिया की तुलना में कुछ संक्षिप्त है। यहां प्रासंगिक है लेखक के निजी अनुभव, जिन्होंने एक दलित के रूप में खुद जातिगत भेदभाव का सामना किया। इससे भी अधिक प्रासंगिक उनका विद्वतापूर्ण स्वभाव है। आंबेडकर स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु मन के थे और बहुत छोटी उम्र से ही पढ़ने के लिए उत्सुक थे। इन प्रवृत्तियों को कोलंबिया और लंदन में उनकी शिक्षा और वहां से प्राप्त दो डॉक्टरेट की उपाधियों ने और आकार दिया। कक्षा के भीतर और उससे बाहर आंबेडकर ने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शन और इतिहास का गहराई से अध्ययन किया। इस विद्वतापूर्ण प्रशिक्षण के कारण, उनके पास— टैगोर, गांधी, या नेहरू के विपरीत— अपने पढ़ने और अपने अनुभवों को एक सुसंगत और प्रेरक कथा में संश्लेषित करने का विश्लेषणात्मक कौशल था। साथ ही, आज के शब्दजाल-प्रवण शिक्षाविदों के विपरीत, आंबेडकर के पास रोजमर्रा की भाषा में अपने तर्कों को संप्रेषित करने की क्षमता और इच्छा भी थी। वह अपने साथी विद्वानों के लिए नहीं, बल्कि अपने साथी नागरिकों के लिए लिख रहे थे।
मैंने पहली बार एनिहिलेशन ऑफ कास्ट 1990 के दशक की शुरुआत में पढ़ी थी। मैंने तब गांधी का अध्ययन करना शुरू किया था, और आंबेडकर के दृष्टिकोण की शक्ति और दिशा से चकित था। हालांकि, एनिहिलेशन ऑफ कास्ट के मुख्य पाठ में गांधी का उल्लेख केवल सरसरी तौर पर किया गया है, यह जाति के बारे में गांधीवादी दृष्टिकोण था, जिसे मुख्य रूप से लक्षित किया गया था।
जहां महात्मा सोचते थे कि हिंदुइज्म (हिंदू धर्म) विभिन्न जातियों के लोगों के एक साथ खाने और रहने की पहल कर खुद से सुधार कर सकता है, वहीं आंबेडकर के पास ऐसी तदर्थता के लिए समय नहीं था। उन्होंने तर्क दिया, जो कि अनुकरणीय है, 'जाति हिंदू धर्म की नैतिक और धार्मिक दुनिया में इतनी केंद्रीकृत है कि इसे पवित्रता प्रदान करने वाले ग्रंथों की वैधता पर सीधा हमला कर ही खत्म किया जा सकता है।'
मैंने पिछले वर्षों में एनिहिलेशन ऑफ कास्ट को कई बार पढ़ा है। कई बार तो यूनिवर्सिटी के कोर्स के रूप में, विद्यार्थियों के साथ जहां मैं उन्हें पढ़ाता था। मैंने आंबेडकर और उनकी विरासत में दिलचस्पी रखने वाले समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, जीवनीकारों और जाति विरोधी कार्यकर्ताओं की इस पर आलोचनात्मक टिप्पणियों का अनुसरण किया है। हैदराबाद में रहने वाले दार्शनिक सैयद सईद की किताबनुमा टिप्पणी के मसौदे को पढ़ने से पहले तक मैं सोचता था कि इसके दायरे और इसमें दिए गए तर्कों को मैं अच्छी तरह से जानता हूं। इससे आंबेडकर जो कहना चाहते थे, उस पर एक पूरी तरह से नया और गहरा प्रकाश डालने वाला परिप्रेक्ष्य मिला।
एनिहिलेशन ऑफ कास्ट के पहले के टिप्पणीकारों ने व्यापक रूप से चार तरह के सवाल किए और उनके जवाब देने के प्रयास किए।
पहला, आंबेडकर ने इसे क्यों लिखा, जब वह इसे भाषण के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सके, तो इसे उन्होंने अपने खर्चे से प्रकाशित करवाया। दूसरा, आंबेडकर किन्हें अपने संभावित श्रोता के रूप में देख रहे थे। तीसरा, क्या किताब को लिखते समय और उसे प्रकाशित करते समय आंबेडकर के मन में सामान्य हिंदुओं के अलावा विशेष रूप से उस समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध हिंदू गांधी थे। चौथा, आंबेडकर की अपनी जीवनी में पाठ और उसके परिणाम का क्या सटीक स्थान है।
साहसी और मौलिक कदम उठाते हुए सईद इनमें से किसी भी सवाल को संबोधित नहीं करते। उनकी दिलचस्पी एनिहिलेशन ऑफ कास्ट के व्यापक संदर्भ के बजाय इसके सूक्ष्म विश्लेषण में रही। उनके अपने शब्दों में, उनकी किताब इस बात को केंद्रित कर लिखी गई कि, 'यह निबंध क्या कह रहा है, और सिर्फ यह कि, यह क्या कह रहा है।' उन्होंने अपनी तकनीक को इस तरह परिभाषित किया, 'ऐसा लगता है कि आंबेडकर यही कह रहे हैं और यदि ऐसा है, तो ये उनके दृष्टिकोण और उनके तर्कों के निहितार्थ हैं।'
इस प्रकार वह आंबेडकर के अन्य ग्रंथों, उनके व्यापक राजनीतिक और सामाजिक सुधार कार्य, आधुनिक भारतीय इतिहास में उनके स्थान और स्थिति के व्यापक प्रश्न के साथ जाति के विनाश के संबंध को जोड़ते हैं। जैसा कि प्रोफेसर सईद कहते हैं, उनका प्रयास, बड़े लेखक की छाया के प्रभाव में आए बिना, पाठ का अध्ययन करने में रहा। इस काम में वह काफी हद तक सफल रहे। हम आंबेडकर की मौजूदगी से पूरी तरह नहीं बच सकते, लेकिन प्रोफेसर सईद की नजरों से हम किताब के ढांचे और वह क्या कह रही है, उसे कहीं अधिक बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
प्रोफेसर सईद प्रदर्शित करते हैं कि एक ओर, भारत में सामाजिक असमानता का आंबेडकर का विश्लेषण मार्क्सवादियों द्वारा प्रस्तावित की तुलना में कहीं अधिक तीक्ष्ण (और व्यापक) है, और दूसरी ओर, हिंदू समाज को बदलने के लिए आंबेडकर का कार्यक्रम कैसे गांधीवादी जिसकी वकालत करते हैं, उसकी तुलना में कहीं अधिक गहन है।
प्रोफेसर सईद ने आज की पहचान की राजनीति की तीखी आलोचना की है। जैसा कि वह लिखते हैं, 'आंबेडकर चाहते थे कि जाति के सभी चिह्न मिट जाएं, जबकि आज हम उन चिह्नों की विशिष्ट उपस्थिति देख रहे हैं।' वह कहते हैं कि आंबेडकर ने पहले ही देख लिया होगा कि पहचान की राजनीति अनिवार्य रूप से बहुसंख्यकवादी राजनीति के उद्भव का परिणाम है (इक्कीसवीं सदी में यह भारत के साथ-साथ विश्व स्तर पर भी स्पष्ट हो गया है), और यह कि बहुसंख्यकवाद लोकतांत्रिक राजनीति के साथ-साथ नैतिक राजनीति को भी कमजोर करता है, या देश के ढीले-ढाले सभ्यतागत चरित्र को संक्रमित करता है।'
एक गौरवशाली हिंदू अतीत के आज के उभार और उसे आंबेडकर कैसे देखते, इस पर प्रोफेसर सईद लिखते हैं, 'कला और संस्कृति की एक महान सभ्यतागत विरासत का क्या उपयोग है, जब इसका आधार उत्पीड़न, बंधन और उच्च जाति के हिंदुओं की तुलना में एक बड़े वर्ग को कमतर समझा जाए और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाए?'
इस महीने के अंत में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक में, सैयद सईद ने हमें जाति के विनाश का एक गहन अध्ययन प्रदान किया है जो स्वयं एक बहुत ही गहन अध्ययन की मांग करता है।