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किसानों के सहारे सियासी फसल बोने में जुटा विपक्ष!, खेती-किसानी की कसौटी पर हर दल कठघरे में

अमर उजाला नेटवर्क, लखनऊ Published by: शाहरुख खान Updated Tue, 08 Dec 2020 10:42 PM IST
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opposition through farmers movement took to streets against government
सड़क पर अखिलेश यादव - फोटो : अमर उजाला
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नए कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे किसान संगठनों ने भले ही सियासी दलों से दूर बनाए रखने की कोशिश की हो पर लेकिन सपा, कांग्रेस व बसपा समेत पूरा विपक्ष जिस तरह सरकार के खिलाफ मुखर है, उससे साफ दिखाई दे रहा है कि विपक्ष किसानों के सहारे भविष्य की सियासी फसल तैयार करने में जुट गया है। जबकि प्रदेश में कृषि के अनुबंधीकरण और व्यापारीकरण को बढ़ावा देने की बातें नई नहीं है। उनके शब्द भले ही भिन्न हों। 
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वर्ष 1995 में केंद्र की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार के देश को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का सदस्य बनाने के फैसले के बाद प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार ने उसकी शर्तों के परिपेक्ष्य में जो कृषि नीति बनाई थी, कमोबेश उसी नीति पर प्रदेश में गैर भाजपा दलों की सरकारें भी चलीं। किसी ने उस नीति में परिवर्तन या अस्वीकार करने की कोशिश नहीं की। तब आज इनके विरोधी सुर कहीं न कहीं इनकी सियासी भूमिका की ओर ही इशारा करते हैं। 
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बसपा: मायावती ने की थी खेती को उद्योग का दर्जा देने की घोषणा
वर्ष 2007 में प्रदेश में बनी मायावती सरकार ने खेती को उद्योग का दर्जा देने की घोषणा की। कहा, यह किसानों के हित में होगा। मगर, उनकी घोषणाएं जमीन पर उतर नहीं पाईं। सभी को याद होगा कि भूमि अधिग्रहण के विरोध में भट्टा परसौल कांड उन्हीं के कार्यकाल में हुआ था। चीनी मिलों की बिक्री में घोटाला भी उन्हीं की सरकार से जुड़ा है। इसे उस समय के किसान संगठनों ने बड़ी मुखरता से उठाते हुए इसे किसानों की दुश्वारियां बढ़ाने वाला फैसला करार दिया था।

सपा : मुलायम के कार्यकाल में बना था कांट्रैक्ट फार्मिंग का प्रस्ताव
मायावती से पहले प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में भी कांट्रैक्ट फार्मिंग का प्रस्ताव तैयार हुआ था। इसका विरोध हुआ था। यही नहीं, किसानों की भूमि अधिग्रहण को लेकर विरोध और दादरी भूमि अधिग्रहण कांड जैसी घटना मुलायम के नेतृत्व वाली सपा सरकार से ही जुड़ी है। किसानों ने दादरी भूमि अधिग्रहण कांड का जबरदस्त विरोध किया था और अब हाई कोर्ट ने उस अधिग्रहण को रद्द कर किसानों को उनकी जमीन वापस करने का फैसला सुनाया है। 

अब सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने किसान यात्रा की घोषणा के साथ किसान आंदोलन को समर्थन दिया है। जबकि अखिलेश के शासनकाल में गन्ना के परामर्शी मूल्य पर किसानों की नाराजगी सड़कों पर मुखर हुई थी। आज भले ही कांग्रेस किसानों के समर्थन की बात कर रही हो, लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले उसने खुद मंडियां समाप्त कर मुक्त व्यापार का रास्ता खोलने की घोषणा की थी। इतना ही नहीं, डब्ल्यूटीओ में शामिल होने का फैसला करने वाली केंद्र की तत्कालीन सरकार भी कांग्रेस की थी।

इसलिए उठ रहा सवाल
कृषि अर्थशास्त्री प्रो. एपी तिवारी बताते है कि केंद्र सरकार के 2015 में डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने की स्वीकृति के बाद किसी भी राजनीतिक दल की सरकार के लिए खेती-किसानी को प्रतिबंधों से मुक्त करना जरूरी हो गया है। कोई भी राज्य सरकार डब्ल्यूटीओ के प्रावधानों से अलग नहीं चल सकती है। उसे आज नहीं तो कल कृषि क्षेत्र में निजीकरण, विविधीकरण और अनुबंधीकरण के रास्ते खोलने ही होंगे। जो काम अलग-अलग राज्यों में वहां की सरकारों ने अब तक टुकड़ों-टुकड़ों में किया है, मोदी सरकार ने वह काम पूरे देश में एकसाथ शुरू करने के लिए कदम बढ़ा दिया है। प्रो. तिवारी की बात पर सियासी दलों की भूमिका का विश्लेषण करें तो साफ  हो जाता है कि वे सिर्फ  किसानों के सहारे अपनी सियासत को धार देकर उनका समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।
 
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