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UP: सिलिका सैंड के अवशेष से बनेंगे रंग-बिरंगे शीशे, अवशेषों में पाए गए हैं क्रोमियम, आर्सेनिक जैसे जहरीले तत्व
अविनाशी श्रीवास्तव, अमर उजाला, प्रयागराज
Published by: शाहरुख खान
Updated Wed, 22 Oct 2025 03:30 PM IST
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सार
अब पठारी इलाके में पाए जाने वाले सिलिका सैंड के अवशेष से रंग-बिरंगे शीशे बनेंगे। शंकरगढ़ को जहरीले रासायनिक तत्वों संग भूजल दोहन की समस्या से भी राहत मिलेगी। इविवि के वैज्ञानिकों के शोध में सफलता मिली है।

सिलिका शेड
- फोटो : संवाद न्यूज एजेंसी
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विस्तार
पठारी इलाके में पाए जाने वाले सिलिका सैंड की धुलाई के बाद जमा अवशेष भी कमाई का मजबूत आधार बनेंगे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अवशेष से रंगीन शीशा बनाने में सफलता पाई है। इसकी कीमत बाजार में अधिक है। खास यह कि नई तकनीकी से जहरीले रासायनिक तत्वों के अलावा भूजल दोहन की समस्या से भी राहत मिलेगी।
विवि के अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस विभाग के प्रो.जयंत कुमार पति के नेतृत्व में शोधार्थियों की टीम ने यमुनापार के शंकरगढ़ में शीशा बनाने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले सिलिका सैंड के अवशेषों के 70 नमूने लिए। अलग-अलग स्थानों से लिए गए इन नमूनों को सात भाग में बांटकर शोध किया गया।
इसके तहत 75, 15 और 10 के अनुपात में सिलिका सैंड के अवशेष, सोडियम कार्बोनेट व कैल्शियम कार्बोनेट मिलाकर 1300 डिग्री सेंटीग्रेड पर पिघलाए गए। इस विधि से उच्च गुणवत्ता वाला शीशा बनाने में सफलता मिली।
खास यह कि इस विधि से प्राकृतिक तौर पर रंगीन शीशे बनाने में सफलता मिली जो सामान्य की तुलना में अधिक कीमत पर बिकते हैं। अलग-अलग स्थानों से लिए गए अवशेषों से गाढ़े नीले, हल्के नीले, गाढ़े हरे, हल्का हरे रंग के शीशे बनाने में सफलता मिली है।

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विवि के अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस विभाग के प्रो.जयंत कुमार पति के नेतृत्व में शोधार्थियों की टीम ने यमुनापार के शंकरगढ़ में शीशा बनाने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले सिलिका सैंड के अवशेषों के 70 नमूने लिए। अलग-अलग स्थानों से लिए गए इन नमूनों को सात भाग में बांटकर शोध किया गया।
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इसके तहत 75, 15 और 10 के अनुपात में सिलिका सैंड के अवशेष, सोडियम कार्बोनेट व कैल्शियम कार्बोनेट मिलाकर 1300 डिग्री सेंटीग्रेड पर पिघलाए गए। इस विधि से उच्च गुणवत्ता वाला शीशा बनाने में सफलता मिली।
खास यह कि इस विधि से प्राकृतिक तौर पर रंगीन शीशे बनाने में सफलता मिली जो सामान्य की तुलना में अधिक कीमत पर बिकते हैं। अलग-अलग स्थानों से लिए गए अवशेषों से गाढ़े नीले, हल्के नीले, गाढ़े हरे, हल्का हरे रंग के शीशे बनाने में सफलता मिली है।
अवशेषों में पाए गए हैं क्रोमियम, आर्सेनिक जैसे जहरीले तत्व
प्रयागराज। प्रो.जयंत कुमार पति के नेतृत्व में शंकरगढ़ के शिवराजपुर एवं आसपास के क्षेत्रों में सिलिका सैंड पर किए गए एक अन्य शोध के रिजल्ट भविष्य के लिए बड़े ही खतरनाक संकेत दे रहे हैं। शीशा बनाने की प्रक्रिया में सिलिका सैंड के बचे अवशेष में बड़ी मात्रा में आर्सेनिक, क्रोमियम, कोबाल्ट जैसे खतरनाक तत्व पाए गए हैं।
प्रयागराज। प्रो.जयंत कुमार पति के नेतृत्व में शंकरगढ़ के शिवराजपुर एवं आसपास के क्षेत्रों में सिलिका सैंड पर किए गए एक अन्य शोध के रिजल्ट भविष्य के लिए बड़े ही खतरनाक संकेत दे रहे हैं। शीशा बनाने की प्रक्रिया में सिलिका सैंड के बचे अवशेष में बड़ी मात्रा में आर्सेनिक, क्रोमियम, कोबाल्ट जैसे खतरनाक तत्व पाए गए हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का यह शोध स्विट्जरलैंड के प्रिंजर नेचर में प्रकाशन के लिए स्वीकार कर लिया गया है। प्रयागराज के पठारी क्षेत्र में पाए जाने वाले सिलिका सैंड की गुणवत्ता काफी अच्छी है। ऐसे में ग्लास एवं सिरोमिक उद्योग में इनकी अधिक मांग है।
क्षेत्र में सात दशक से भी अधिक समय से सिलिका सैंड से शीशा बनाने का काम चल रहा है। शीशा बनाने की प्रक्रिया में पत्थरों के खनन के बाद इनके महीन कण बनाए जाते हैं। इसके बाद पानी से धुलाई करके शीशा बनाने लायक अवयव तैयार किए जाते हैं। इस प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में सिलिका सैंड का अवशेष बह जाता है।
दशकों से यह उद्योग चलने के कारण शंकरगढ़ के बड़े इलाके में सिलिका सैंड के अवशेष जमा हो गए हैं। विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के शोध में सामने आया है कि इन अवशेषों में आर्सेनिक क्रोमियम, कोबाल्ट, निकिल, जिंक जैसे तत्व हैं।
खतरनाक बात यह भी है कि इनकी मात्रा मानक से कहीं अधिक तो पाई ही गई है। इनमें से 90 प्रतिशत की साइज एक से 10 माइक्रो मीटर के बीच है। अवशेष के सूखने के बाद ये कण धूल का रूप लेकर हवा में भी घुल जाते हैं और श्वास लेते समय फेफड़े में भी चले जाते हैं।
पर्यावरण के साथ भूजल को भी खतरा
वैज्ञानिकों का कहना है कि इन रासायनिक तत्वों के कारण पर्यावरण के साथ खेती एवं भूजल को भी खतरा बन गया है। उनका कहना है कि माइक्रो आकार के ये कण भूजल को भी प्रदूषित कर रहे हैं। पानी में भी इनकी मात्रा पाई गई है। हालांकि, अभी इस पर विस्तृत शोध की जरूरत है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इन रासायनिक तत्वों के कारण पर्यावरण के साथ खेती एवं भूजल को भी खतरा बन गया है। उनका कहना है कि माइक्रो आकार के ये कण भूजल को भी प्रदूषित कर रहे हैं। पानी में भी इनकी मात्रा पाई गई है। हालांकि, अभी इस पर विस्तृत शोध की जरूरत है।
सिलिका सैंड की धुलाई बना जल संकट का कारण
सिलिका सैंड से शीशा बनाने की प्रक्रिया में अत्यधिक जल का उपयोग किया जाता है। पत्थर के खनन के बाद क्रशर मशीन में इसके महीन कण बनाए जाते हैं। फिर पानी के तेज बहाव में इनकी धुलाई की जाती है। इसके लिए भूजल का उपयोग किया जा रहा है। इससे पूरे क्षेत्र में गंभीर जल संकट खड़ा हो गया है।
सिलिका सैंड से शीशा बनाने की प्रक्रिया में अत्यधिक जल का उपयोग किया जाता है। पत्थर के खनन के बाद क्रशर मशीन में इसके महीन कण बनाए जाते हैं। फिर पानी के तेज बहाव में इनकी धुलाई की जाती है। इसके लिए भूजल का उपयोग किया जा रहा है। इससे पूरे क्षेत्र में गंभीर जल संकट खड़ा हो गया है।
अत्यधिक दोहन की वजह से पत्थरों के बीच-बीच में रुका बारिश का पानी समय से काफी पहले ही खत्म हो जाता है। मार्च से ही शंकरगढ़ और आसपास के इलाके में जल संकट बन जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सिलिका सैंड से शीशा बनाने की नई तकनीकी में पानी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। ऐसे में विश्वविद्यालय के इस शोध से सिलिका सैंड में पाए जाने वाले जहरीले पदार्थों के साथ जल संकट से भी काफी राहत की उम्मीद है।
शंकरगढ़ में सिलिका सैंड से शीशा बनाने का काम दशकों से चला आ रहा है। इसे लेकर दो अलग-अलग शोध किए गए। इसके तहत सिलिका सैंड की धुलाई के बाद के अवशेष में कई जहरीले तत्व पाए गए। ये तत्व पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण के लिहाज से काफी खतरनाक हैं।
वहीं, दूसरे शोध में सिलिका सैंड में सोडियम एवं कैल्शियम कार्बोनेट मिलाकर शीशा बनाने में सफलता मिली है। इस माध्यम से सीधे रंगीन शीशे बनाए जा सकते हैं, अलग से कोई रंग या अवयव मिलाने की जरूरत नहीं है। इससे क्षेत्र के लोगों की आमदनी बढ़ने के साथ पर्यावरण एवं भूजल को बचाने में भी काफी मदद मिलेगी। इसे पेटेंट भी कराया जाएगा जिसकी प्रक्रिया अंतिम चरण में हैं।
-प्रो.जयंत कुमार पति, अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस विभाग, इविवि
-प्रो.जयंत कुमार पति, अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस विभाग, इविवि