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Hathras News: वंदे मातरम्... अलीगढ़ की सरजमीं को भी किया जोश से लबरेज
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मातृभूमि के लिए दिलों में जोश, उमंग, देश की एकता और स्वाभिमान की भावना को जागृत करने वाला राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् सात नवंबर को 150 साल का हो जाएगा। अलीगढ़ की सरजमीं भी आजादी के दीवानों में इस गीत से जोश भरती रही है। सरदार भगत सिंह भी अलीगढ़ के शादीपुर में प्रवास के दौरान इस गीत को गुनगुनाया करते थे।
राष्ट्रीय गीत बना वंदे मातरम् बंकिम चंद्र चटर्जी ने वर्ष 1875 में सात नवंबर को अक्षय नवमी वाले दिन लिखा था, जिसे सबसे पहली बार बंग दर्शन में प्रकाशित किया गया फिर इसका प्रकाशन आनंद मठ पुस्तक में किया गया। बाद में यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख गीत बन गया। आजादी के दीवानों की स्वाभिमान का प्रतीक बन गया। बताया जाता है कि पिसावा के शादीपुर में सरदार भगत सिंह अपने प्रवास के दौरान वेश बदलकर रहते थे फिर भी कभी-कभी वंदे मातरम् को गुनगुना लिया करते थे।
स्वतंत्रता आंदोलन का मंत्र था
खैर के स्वतंत्रता सेनानी रघुवंश रत्न गौड़ के 84 साल केज्येष्ठ पुत्र अधिवक्ता रघुकुल तिलक गौड़ बताते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में “वंदे मातरम” केवल एक गीत नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का मंत्र था। इस नारे ने अंग्रेज़ी हुकूमत की नींव हिला दी थी। खैर के स्वतंत्रता सेनानियों रघुवंश रत्न गौड़, रमेश चंद्र गौड़, हरिशंकर आज़ाद, लीलाधर आज़ाद, निरंजन देव शर्मा और बाबा रोहतगी ने इसी नारे को अपनी शक्ति और प्रेरणा बनाया।
वंदे मातरम् को राष्ट्रगान नहीं बनाने की रही पीड़ा
उन्होंने बताया कि जब भारत की संविधान सभा ने “जन गण मन” को राष्ट्रीय गान और “वंदे मातरम” को राष्ट्रीय गीत घोषित किया, तो स्वतंत्रता सेनानियों के मन में एक पीड़ा हुई क्योंकि उनकी लड़ाई का प्रतीक तो “वंदे मातरम” ही था, जो उनके बलिदान और संघर्ष की पहचान बन चुका था। फिर भी, उन्होंने देशभक्ति की भावना के तहत “जन गण मन” को सम्मानपूर्वक राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया।
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राष्ट्रीय गीत बना वंदे मातरम् बंकिम चंद्र चटर्जी ने वर्ष 1875 में सात नवंबर को अक्षय नवमी वाले दिन लिखा था, जिसे सबसे पहली बार बंग दर्शन में प्रकाशित किया गया फिर इसका प्रकाशन आनंद मठ पुस्तक में किया गया। बाद में यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख गीत बन गया। आजादी के दीवानों की स्वाभिमान का प्रतीक बन गया। बताया जाता है कि पिसावा के शादीपुर में सरदार भगत सिंह अपने प्रवास के दौरान वेश बदलकर रहते थे फिर भी कभी-कभी वंदे मातरम् को गुनगुना लिया करते थे।
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स्वतंत्रता आंदोलन का मंत्र था
खैर के स्वतंत्रता सेनानी रघुवंश रत्न गौड़ के 84 साल केज्येष्ठ पुत्र अधिवक्ता रघुकुल तिलक गौड़ बताते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में “वंदे मातरम” केवल एक गीत नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का मंत्र था। इस नारे ने अंग्रेज़ी हुकूमत की नींव हिला दी थी। खैर के स्वतंत्रता सेनानियों रघुवंश रत्न गौड़, रमेश चंद्र गौड़, हरिशंकर आज़ाद, लीलाधर आज़ाद, निरंजन देव शर्मा और बाबा रोहतगी ने इसी नारे को अपनी शक्ति और प्रेरणा बनाया।
वंदे मातरम् को राष्ट्रगान नहीं बनाने की रही पीड़ा
उन्होंने बताया कि जब भारत की संविधान सभा ने “जन गण मन” को राष्ट्रीय गान और “वंदे मातरम” को राष्ट्रीय गीत घोषित किया, तो स्वतंत्रता सेनानियों के मन में एक पीड़ा हुई क्योंकि उनकी लड़ाई का प्रतीक तो “वंदे मातरम” ही था, जो उनके बलिदान और संघर्ष की पहचान बन चुका था। फिर भी, उन्होंने देशभक्ति की भावना के तहत “जन गण मन” को सम्मानपूर्वक राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया।