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Meerut: मोबाइल बालमन की खुशियों पर भारी, मनोरोग का खतरा, वर्चुअल दुनिया में कैद होने लगे बच्चे

न्यूज डेस्क, अमर उजाला, मेरठ Published by: डिंपल सिरोही Updated Wed, 26 Nov 2025 12:20 PM IST
सार

घर में माता-पिता की व्यस्तता और बच्चों के प्रति जरूरत से ज्यादा नरमी मासूमों के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ रही है। पिछले डेढ़ साल में 1.5 से 3.5 वर्ष तक के बच्चों में आक्रामकता, स्पीच डिले और हाइपरएक्टिविटी के मामलों में तेज़ी से वृद्धि दर्ज की गई है।

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Meerut: Mobile phones are taking a toll on children's happiness, risking mental illness, and children becoming
बच्चे - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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माता-पिता की व्यस्तता घरों में चुपचाप बच्चों को मनोरोगी बना रही है। इसे अभिभावकों की लापरवाही कहें या बच्चों के प्रति जरूरत से ज्यादा नरमी, लेकिन सच है कि पिछले डेढ़ साल में मोबाइल की बढ़ती लत के कारण 1.5 से 3.5 वर्ष तक के बच्चों में आक्रामकता, बोलने में देरी (स्पीच डिले) और अत्यधिक चंचलता (हाइपरएक्टिविटी) की शिकायतों में तेजी से वृद्धि हुई है। मेडिकल कॉलेज के मनोरोग चिकित्सकों के अनुसार इसकी बच्चों में बढ़ती मोबाइल की लत इसकी सबसे बड़ी वजह बनी है।

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डोपामाइन का खेल बच्चों को बना रहा है वर्चुअल दुनिया का कैदी
निजी अस्पतालों में भी प्रतिदिन इस तरह के 10 से 15 मामले आ रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इस पर अंकुश नहीं तो आने वाले समय में बच्चों में यह मनोविकार और भी बढ़ सकता है। मनोरोग विशेषज्ञों का मानना है कि जब बच्चों को मोबाइल या टैबलेट दिया जाता है तो उसमें चलने वाले कार्टून या गेम डोपामाइन नामक हार्मोन के रिलीज को ट्रिगर करते हैं। यह हार्मोन खुशी और संतोष का एहसास कराता है। बहुत कम उम्र के बच्चों में यह प्रभाव इतना तीव्र होता है कि वे असली दुनिया से पूरी तरह कट जाते हैं और मोबाइल की दुनिया में खो जाते हैं। मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. रवि राणा बताते हैं कि इस कारण बच्चे चिड़चिड़ेपन, अकेलेपन से ग्रस्त हो जाते हैं। यह वजह है कि वह बच्चे मोबाइल के बिना खाना भी नहीं खा रहे हैं और खेलते समय अन्य बच्चों से जुड़ने में असमर्थ हो जा रहे हैं।

 
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स्पीच डिले का बढ़ता खतरा
आमतौर पर दो से ढाई साल की उम्र तक बच्चे बोलना शुरू कर देते हैं लेकिन मोबाइल और टीवी पर अत्यधिक समय बिताने के कारण ऐसे बच्चों का भाषा विकास भी रुक जा रहा है। डॉ. राणा के अनुसार अध्ययनों में यह पाया गया है कि प्रतिदिन दो घंटे या उससे अधिक समय तक मोबाइल देखने वाले बच्चों में स्पीच डिले का खतरा तीन गुना बढ़ जाता है। इसके अलावा उनकी आंखें भी कमजोर हो रही हैं। इससे मायोपिया (निकट दृष्टि दोष) और ड्राई आई सिंड्रोम (आंखों का सूखापन) जैसी समस्याएं आम हो गई हैं। प्रतिदिन दो से पांच ऐसे मामले ऐसे चिकित्सकों के सामने आ रहे हैं।

पहले बच्चों को चुप कराने के देते थे मोबाइल, अब बनी आदत
एक शोध का हवाला देते हुए जरनल फिजिशियन डॉ. महेश बताते हैं कि मेरठ सहित देश में लगभग 40 प्रतिशत टॉडलर्स प्रतिदिन तीन से चार घंटे टीवी और मोबाइल पर बिताते हैं। ओपीडी में आने वाले माता -पिता अक्सर यह स्वीकार करते हैं कि वह बच्चे को चुप कराने के लिए फोन देते थे, लेकिन अब यह एक आदत बन गई है। अब बच्चे हर वक्त मोबाइल की मांग करते रहते हैं।
 

सलाह... अभिभावक बच्चों को दें समय, खिलौनों और कहानियों से जोड़ें
मेडिकल कॉलेज के मानसिक रोग विभाग प्रभारी डॉ. तरुण पाल ने माता-पिता को सलाह दी है कि वह अपने बच्चों को प्रतिदिन दो से तीन घंटे घर के बाहर पार्क में खेलने के लिए भेजें। बच्चों के पास बैठने पर उन्हें सकारात्मक कहानियां सुनाएं और उन्हें खेल और खिलौनों में व्यस्त रखें। मोबाइल को बच्चे का बेबी सिटर बनाना बंद करें।

स्क्रीन तक सीमित पहचान और कमरे में घूमते पंखे का भी डर
सऊदी अरब में नौकरी करने वाले एक पिता का कहना है कि वह अपने बच्चे से केवल मोबाइल पर ही बात करते थे। जब बच्चा दो से चार साल का हुआ, तो वह उन्हें देखकर डरने लगा। लंबे समय तक चले इलाज के बाद बच्चा सामान्य हो पाया।

इसी तरह के एक अन्य मामले में एक बच्चा चलते हुए पंखे को देखकर उसकी तरह घूमता था और पंखा रुकने   पर डर जाता था। यही स्थिति एग्जॉस्ट फैन के  साथ भी थी। मोबाइल से दूर करने और उचित उपचार के बाद बच्चा ठीक हुआ।

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