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The NIA court acquitted all seven accused including Pragya Thakur on the basis of these arguments
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NIA कोर्ट ने प्रज्ञा ठाकुर समेत सातों आरोपियों को इन दलीलों के आधार पर किया बरी
वीडियो डेस्क अमर उजाला डॉट कॉम Published by: आदर्श Updated Thu, 31 Jul 2025 02:40 PM IST
महाराष्ट्र के मालेगांव में 2008 में हुए बम विस्फोट मामले में गुरुवार को विशेष NIA अदालत ने 17 साल बाद ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने इस मामले में आरोपी बनाए गए सभी सात लोगों को बरी कर दिया है। बरी होने वालों में बीजेपी सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और सेना के पूर्व अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित भी शामिल हैं।
क्या हुआ था 2008 में?
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव शहर में हुए एक बम विस्फोट में 6 लोगों की मौत हुई थी और 95 लोग घायल हुए थे। यह इलाका सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील माना जाता है और उस समय इस घटना ने पूरे देश में सनसनी फैला दी थी।
विस्फोटक एक मोटरसाइकिल में लगाया गया था, जो घटनास्थल पर बरामद हुई थी। इस बाइक को साध्वी प्रज्ञा से जोड़ा गया और फिर उनके खिलाफ UAPA के तहत केस दर्ज किया गया।
विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि विस्फोट के लिए जो मोटरसाइकिल इस्तेमाल हुई थी, उसमें वास्तव में बम लगाया गया था। अदालत ने कहा,
“प्रॉसिक्यूशन यह साबित नहीं कर सका कि मोटरसाइकिल में विस्फोटक था या वह विस्फोट का स्रोत थी।”
इसके साथ ही अदालत ने साफ किया कि केवल धारणा (Perception) या नैतिक प्रमाणों के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इस केस में Unlawful Activities (Prevention) Act (UAPA) लागू किया गया था, लेकिन अदालत ने पाया कि इसके लिए जो मंजूरी ली गई थी, वह कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण थी।
“UAPA के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति नियमानुसार नहीं ली गई थी, दोनों मंजूरी आदेश दोषपूर्ण पाए गए हैं।”
इस कारण से UAPA के तहत कोई अभियोजन टिक नहीं पाया।
अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जांच एजेंसियों द्वारा पेश किए गए सबूतों में कई विरोधाभास और खामियां थीं:
• मृतकों और घायलों की संख्या में अंतर पाया गया।
• कई मेडिकल सर्टिफिकेट में छेड़छाड़ की आशंका जताई गई।
• कुछ घायलों की पहचान स्पष्ट नहीं हो सकी।
• अभिनव भारत संगठन की भूमिका साबित नहीं हो सकी।
“प्रॉसिक्यूशन ने अभिनव भारत का नाम सामान्य रूप से बार-बार लिया, लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं दिया गया जिससे साबित हो सके कि संगठन की फंडिंग का उपयोग आतंकवाद में हुआ।”
कोर्ट ने यह टिप्पणी भी की कि “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, क्योंकि कोई भी धर्म हिंसा को बढ़ावा नहीं देता।” यह कथन न्यायिक व्यवस्था में निष्पक्षता और संतुलन का संकेत देता है।
अदालत ने कहा कि अदालत का कार्य तथ्यों और सबूतों के आधार पर फैसला देना है, न कि सामाजिक या राजनीतिक दबावों के तहत।
जहां आरोपी पक्ष के लिए यह फैसला राहत लेकर आया, वहीं विस्फोट में मारे गए 6 लोगों के परिवारों और घायलों के लिए यह एक भावनात्मक झटका है। 17 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद जब आरोपी बरी हुए, तो कुछ परिवारों ने कहा कि उन्हें अभी भी न्याय नहीं मिला।
अदालत ने अपने आदेश में यह भी निर्देश दिया कि विस्फोट में मारे गए प्रत्येक व्यक्ति के परिवार को ₹2 लाख और प्रत्येक घायल को ₹50,000 का मुआवजा दिया जाए। यह मुआवजा महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिया जाएगा।
यह केस भारत के सबसे पेचीदा और चर्चित आतंकी मामलों में से एक रहा। शुरुआती जांच महाराष्ट्र ATS ने की, जिसमें हिंदुत्व संगठनों के नाम सामने आए। बाद में केस NIA को सौंपा गया। जांच एजेंसियों पर राजनीतिक दबाव में काम करने के आरोप भी लगे। इस केस में कई गवाह पलटे, और कुछ सबूतों की वैधता पर भी सवाल उठे।
मालेगांव विस्फोट मामला भारतीय न्यायिक इतिहास का एक अहम अध्याय बन गया है। यह दिखाता है कि किसी भी व्यक्ति को सजा दिलाने के लिए मजबूत, स्पष्ट और कानूनी रूप से अनुमोदित सबूत जरूरी होते हैं। सिर्फ जनभावना, राजनीतिक विमर्श या सामाजिक धारणा से सजा नहीं दी जा सकती।
अब जब अदालत ने अंतिम रूप से सातों आरोपियों को बरी कर दिया है, तो यह एक मजबूत संदेश है कि “कानून की नजर में सब समान हैं।
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