परंपरा और संस्कृति की जीवंत तस्वीर इस बार भुजरिया पर्व पर देखने को मिली। ग्राम चंदेरी, रामाखेड़ी, उलझावन और कुलाश में दर्जनों किसानों ने पुराने अंदाज में यह पर्व मनाकर लोक-संस्कृति को जीवंत कर दिया। भुजरिया पर्व पर किसानों ने लहंगी गीत गाए और ढोल-मजीरे की थाप पर गांव की गलियों में शोभायात्रा निकाली।
सीहोर के चंदेरी, रामाखेड़ी, उलझावन और कुलाश में किसानों ने भुजरिया पर्व को ढोल-मजीरे और लहंगी गीतों संग पारंपरिक अंदाज में मनाया। ढोल की आवाज और गीतों की मिठास से गांव में एक अद्भुत माहौल बन गया। कहीं महिलाएं गीत गा रही थीं, तो कहीं पुरुष नृत्य करते दिखाई दिए। किसान व समाजसेवी एमएस मेवाड़ा के नेतृत्व में यह आयोजन पूरे उत्साह और उमंग के साथ हुआ। इस आयोजन की सबसे अनोखी झलक तब दिखी, जब कलाकार लकड़ी के ऊपर संतुलन बनाकर नाचते नजर आए। ग्रामीणों ने इसे तालियों और जयकारों से सराहा। यह दृश्य गांव में वर्षों बाद देखने को मिला, जिसने बुजुर्गों को भी अपने बचपन की याद दिला दी।
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नदी में नाच-गान का उत्सव
रक्षाबंधन के पड़वा के दिन मनाए जाने वाले इस पर्व में ग्रामीण परंपरा के अनुसार नदी में उतरकर भी नाचते और लहंगे गीत गाते हैं। पानी में थिरकते किसानों और ग्रामीणों का यह नजारा देखने के लिए आस-पास के गांवों से भी लोग आए। बुजुर्ग किसान मोतीलाल और कांता प्रसाद ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में भुजरिया खेलने की परंपरा बेहद पुरानी है। पहले यह पर्व हर गांव में बड़े उत्साह से मनाया जाता था, लेकिन अब यह नजारा कम ही देखने को मिलता है। उन्होंने कहा, “संस्कृति को जिंदा रखने के लिए सिर्फ भाव और समर्पण चाहिए।”
किसान एमएस मेवाड़ा ने बताया कि भुजरिया पर्व न केवल धार्मिक आस्था से जुड़ा है, बल्कि यह ग्रामीण एकता और भाईचारे का प्रतीक भी है। इस आयोजन ने साबित कर दिया कि आधुनिक समय में भी यदि लोग चाहें तो पुरानी परंपराओं को उसी उल्लास के साथ जीवंत रखा जा सकता है। गांव में भुजरिया पर्व का दिन भर उल्लास बना रहा।
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