सिंगल यूज प्लास्टिक और स्वच्छ भारत मिशन अभियान के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर के युवा पर्वतारोही नितीश सिंह की ओर से अब उत्तराखंड स्थित 19086 फीट ऊंची माउंट रूद्रगैरा की चढ़ाई की जाएगी। नितीश इस दुर्गम चोटी की चढ़ाई के लिए पिछले दो महीने से उत्तराखंड में पर्वतारोही गौरव रावत से प्रशिक्षण हासिल कर रहे हैं। नितीश इस अभियान को सफल बनाने के लिए जीजान से जुटे हैं।
तस्वीरें: जानिए कौन है गोरखपुर का 'लाल', जो 19 हजार फीट ऊंची माउंट रूद्रगैरा पर फहराएगा तिरंगा
अमर उजाला से बातचीत में नितीश ने बताया कि वह माउंट रूद्रगैरा की चोटी पर तिरंगा फहराकर यूपी के साथ पूरे देश का नाम रोशन करना चाहते हैं। माउंट रूद्रगैरा की ऊंचाई 19086 फीट है जो कि उत्तराखंड में उत्तरकाशी के गौमुख से शुरू होती है। एक अक्तूबर से पांच दिन के अंतराल पर नितीश दो बार चोटी को चढ़ने का प्रयास करेंगे। इस दौरान उनके साथ कोई गाइड नहीं होगा। वह एल्पाइन एक्सपीडिशन तकनीक की मदद से चढ़ाई करेंगे। इसका प्रशिक्षण वह ले रहे हैं।
नितीश ने बताया कि कुछ कर गुजरने का जज्बा उन्हें कारगिल युद्ध के दौरान सड़क दुर्घटना में शहीद पिता लांस नायक अमरजीत सिंह से मिला है। पिता के उत्तराखंड में तैनाती के दौरान नितीश आर्मी स्कूल रूड़की की कक्षा पांचवीं में पढ़ाई कर रहे थे। एक बार परीक्षा में शामिल होने के लिए उन्हें हिमाचल प्रदेश स्थित सोलन जाना पड़ा था। इस दौरान पहाड़ों और प्रकृति की अनोखी छटा ने उनका मन मोह लिया। इसके बाद वो अक्सर ऋषिकेश और हरिद्वार घूमने जाया करते थे।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में स्नातक की पढ़ाई के दौरान नितीश का शौक परवान चढ़ा। फिर वह एक के बाद एक चोटियों को फतह करते गए। राजेंद्रनगर में मां जलसा देवी, भाई नीरज सिंह, दीपक सिंह और बहन नीतू सिंह के साथ रहने वाले नितीश ने बारहवीं की पढ़ाई राजकीय जुबिली इंटर कॉलेज से उत्तीर्ण की है। वर्तमान में वह गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीबीए की पढ़ाई कर रहे हैं।
क्या है एल्पाइन एक्सपीडिशन तकनीक
ऊंची चोटियों की चढ़ाई बेहद दुर्गम होती है। ऊपर चढ़ने के दौरान थकान का एहसास ज्यादा होता है। खासकर हाड़ कंपाने वाली ठंड में सामान लेकर ज्यादा दूर तक चढ़ाई करना बेहद कठिन कार्य हो जाता है। ऐसे में चढ़ाई करने वाले लोगों की तरफ से गाइड और सामान ढोने वाले पोर्टर की मदद ली जाती है। एल्पाइन एक्सपीडिशन तकनीक के तहत आप सामान से लेकर अपने जाने का मार्ग तक अकेले ही चुनते हैं। पहाड़ पर खाना बनाना, टेंट लगाना, रास्ता ढूंढना सभी काम को खुद करने पड़ते हैं। इसके लिए बकायदा कड़े प्रशिक्षण की जरूरत होती है।
