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उम्मीद: नवरात्र में मूर्तिकार रहे उदास, अब लक्ष्मी-गणेश से आस, ताजनगरी से कई राज्यों में जाती थी मां दुर्गा की मूर्तियां
संवाद न्यूज एजेंसी, आगरा
Published by: Abhishek Saxena
Updated Fri, 15 Oct 2021 04:16 PM IST
सार
ताजनगरी से मां दुर्गा की मूर्तियां कई राज्यों में जाती थी, अब दो साल से नहीं जा रही हैं, कोरोना संक्रमण ने पूरी व्यवस्था को बिगाड़ दिया है। उचित बिक्री न होने से मूर्तिकार परेशान हैं।
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मूर्तियां
- फोटो : amar ujala
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विस्तार
एक तरफ शक्ति पर्व को मनाने की धूम है तो वहीं दूसरी तरफ देवी की मूर्तियां बनाने वाले मूर्तिकारों की जिंदगी तंगहाल है। दो साल से कोरोना के कारण ताजनगरी के मूर्तिकारों का काम काफी मंदा है। इस बार उन्हें मां दुर्गा की मूर्तियों की उचित बिक्री की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मूर्तिकार अब दिवाली पर लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों की बिक्री से आस लगाए बैठे हैं।
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नामनेर पर अपनी टेंटनुमा झोपड़ी वाली दुकान पर बैठे 60 वर्षीय चंद्रपाल ने बताया कि हमारी छह-सात पीढ़ियां इसी जगह पर काम करती आ रहीं हैं। उन्होंने अपनी दादी से मूर्ति बनाना सीखा था। वे कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा सहित अन्य राज्यों में मूर्तियां बेचते थे, लेकिन कोरोना ने हमारी विरासत की जड़ों को हिलाकर रख दिया। अब आगरा तक में मूर्ति बेचने के लाले पड़ रहे हैं।
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महंगाई भी तोड़ रही कमर
40 साल से मूर्तियां बेच रहे प्रताप सिंह ने बताया कि महंगाई ने हालत खराब कर दी है। मूर्तियां बनाने में लगने वाला सामान जैसे मिट्टी, रद्दी, पेंट, गहने, सजावट का सामान और ट्रांसपोर्ट तक के किराए में लगभग दोगुना खर्च बढ़ गया है। पहले हमारे पास बंगाल के प्रसिद्ध कारीगर भी काम करते थे, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण सभी अपने गांव चले गए।
उठाना पड़ रहा नुकसान
कैंट रोड के मूर्ति विक्रेता कोमल सिंह का कहना है कि इस बार नवरात्रों में कारोबार पटरी पर आने की उम्मीद थी, लेकिन फायदे की जगह घाटा ही उठाना पड़ा। कोरोना के बाद काम शुरू करने के लिए लोन लिया था, इसकी किश्त भी जमा नहीं कर पा रहे हैं। वहीं घर का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा है।
बड़ी मूर्तियों की नहीं हुई बिक्री
सुल्तानगंज की पुलिया पर दस साल से मां दुर्गा की मूर्तियां बेच रहे बंगाल के माणिक ने बताया कि इस बार नवरात्र पर जितनी बिक्री की उम्मीद थी वैसी नहीं हुई। बड़ी मूर्तियां किसी ने नहीं खरीदी। ज्यादातर छोटी मूर्तियां ही लोगों ने खरीदी। अब यह अगले साल ही उम्मीद है।
बंगाल के सोनागाछी की मिट्टी का जरूर होता प्रयोग
मूर्तियां बनाने में बंगाल के सोनागाछी की मिट्टी जरूर मिलाई जाती है। मान्यता है कि जब तक यहां की मिट्टी नहीं मिलाई जाती तब तक मूर्ति पूरी नहीं मानी जाती। वहीं मैनपुरी, इटावा, फिरोजाबाद, और टूंडला की खास चिक नी मिट्टी की भी मूर्तियां बनाई जाती हैं। मूर्ति में सजावट के लिए कलकत्ता से आए कपड़ों, गोटा, चुनरी, सलमा-सितारे, मोती का प्रयोग किया जाता है। लुहार गली और रावतपाड़ा का सामान भी माता को सजाने में करते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाला पेंट किया जाता है।
मूर्तिकारों का कहना है कि सरकार को अपनी योजनाओं में हमारे काम को शामिल करना चाहिए। शहरों के नवीनीकरण में भागीदारी मिले, जिससे पर्यटकों को हमारी संस्कृति के बारे में पता चले। यह भारतीय विरासत है इसके लिए कौशल केंद्र खोलें जाएं ताकि इच्छुक लोग इसे सीख सकें।
सिफारिश: माननीयों ने सौंपी चहेतों के लिए शस्त्र लाइसेंस की सूची, राज्यमंत्री सहित जिला पंचायत अध्यक्ष ने भेजे इतने नाम
40 साल से मूर्तियां बेच रहे प्रताप सिंह ने बताया कि महंगाई ने हालत खराब कर दी है। मूर्तियां बनाने में लगने वाला सामान जैसे मिट्टी, रद्दी, पेंट, गहने, सजावट का सामान और ट्रांसपोर्ट तक के किराए में लगभग दोगुना खर्च बढ़ गया है। पहले हमारे पास बंगाल के प्रसिद्ध कारीगर भी काम करते थे, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण सभी अपने गांव चले गए।
उठाना पड़ रहा नुकसान
कैंट रोड के मूर्ति विक्रेता कोमल सिंह का कहना है कि इस बार नवरात्रों में कारोबार पटरी पर आने की उम्मीद थी, लेकिन फायदे की जगह घाटा ही उठाना पड़ा। कोरोना के बाद काम शुरू करने के लिए लोन लिया था, इसकी किश्त भी जमा नहीं कर पा रहे हैं। वहीं घर का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा है।
बड़ी मूर्तियों की नहीं हुई बिक्री
सुल्तानगंज की पुलिया पर दस साल से मां दुर्गा की मूर्तियां बेच रहे बंगाल के माणिक ने बताया कि इस बार नवरात्र पर जितनी बिक्री की उम्मीद थी वैसी नहीं हुई। बड़ी मूर्तियां किसी ने नहीं खरीदी। ज्यादातर छोटी मूर्तियां ही लोगों ने खरीदी। अब यह अगले साल ही उम्मीद है।
बंगाल के सोनागाछी की मिट्टी का जरूर होता प्रयोग
मूर्तियां बनाने में बंगाल के सोनागाछी की मिट्टी जरूर मिलाई जाती है। मान्यता है कि जब तक यहां की मिट्टी नहीं मिलाई जाती तब तक मूर्ति पूरी नहीं मानी जाती। वहीं मैनपुरी, इटावा, फिरोजाबाद, और टूंडला की खास चिक नी मिट्टी की भी मूर्तियां बनाई जाती हैं। मूर्ति में सजावट के लिए कलकत्ता से आए कपड़ों, गोटा, चुनरी, सलमा-सितारे, मोती का प्रयोग किया जाता है। लुहार गली और रावतपाड़ा का सामान भी माता को सजाने में करते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाला पेंट किया जाता है।
मूर्तिकारों का कहना है कि सरकार को अपनी योजनाओं में हमारे काम को शामिल करना चाहिए। शहरों के नवीनीकरण में भागीदारी मिले, जिससे पर्यटकों को हमारी संस्कृति के बारे में पता चले। यह भारतीय विरासत है इसके लिए कौशल केंद्र खोलें जाएं ताकि इच्छुक लोग इसे सीख सकें।
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