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टेसू-झांझी: महाभारत काल से जुड़ी पांच दिन की प्रेम कहानी, जो परवान चढ़ने से पहले मिटा दी गई...सदियों से गूंज
अमर उजाला न्यूज नेटवर्क, आगरा
Published by: धीरेन्द्र सिंह
Updated Mon, 06 Oct 2025 09:56 AM IST
सार
महाभारत काल में एक छोटी सी प्रेम कहानी सिर्फ पांच दिन ही चल पाई, लेकिन इसकी गूंज आज भी गीतों के माध्यम से ब्रज में सुनाई देती है।
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टेसू-झांझी
- फोटो : संवाद न्यूज एजेंसी
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विस्तार
टेसू-झांझी की एक ऐसी प्रेम कहानी है जो महाभारत के युद्ध की पृष्ठ भूमि में परवान चढ़ने से पहले मिटा दी गई। अधूरी प्रेम कहानी की पांच दिवसीय लोक परंपरा आज भी ब्रज के गांवों में निभाई जाती है।
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बाह, पिनाहट, जैतपुर समेत जिले भर के गांव कस्बों में बच्चों का उत्सव को लेकर उत्साह देखते ही बन रहा है। गलियों में गूंजते टेसू-झांझी के गीत ब्रज की लोक परंपरा को जीवंत कर रहे हैं। विजयदशमी से शरद पूर्णिमा तक ब्रज के गांवों में टेसू-झांझी की लोक परंपरा का निर्वहन होता है। तीन टांग पर टेसू खड़ा होता है, जबकि झांझी छोटी मटकी के आकार की होती है।
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सोमवार को शरद पूर्णिमा पर टेसू-झांझी की शादी और अंतिम विदाई की रस्म का निर्वहन होगा। प्रियंका, खुशबू, सपना, राखी, प्रेमलता, सुमन, रेखा, सीता आदि ने बताया कि लड़के थाली-चम्मच बजाकर टेसू की बरात निकालेंगे। वहीं लड़कियां भी झांझी को विवाह मंडप में लेकर आएंगी। फिर शुरू होता है ढोलक की थाप पर मंगल गीतों के साथ टेसू-झांझी का विवाह। सात फेरे पूरे होने से पहले ही लड़के टेसू का सिर धड़ से अलग कर देंगे, वहीं लड़कियां अपने सिर पर झांझी को रखकर घूम कर उनको अंतिम विदाई देंगी।
पहले होता था शादी जैसा माहौल, चढ़ती थी बरात
90 के दशक तक पांच दिवसीय लोक परंपरा के निर्वहन में शादी जैसा माहौल होता था। बच्चों की टोलियां घर-घर से चंदा लेती थी। टेसू झांझी समिति बनाई जाती थी। शरद पूर्णिमा के दिन शादी का मंडप सजता था। निमंत्रण के कार्ड छपते थे। जरार की माया देवी, बाह की रेनू भदौरिया, रुदमुली की रीता भदौरिया ने बताया कि बैंड बाजे के साथ टेसू की बरात चढ़ती थी। नेग और दावत होती थी।
90 के दशक तक पांच दिवसीय लोक परंपरा के निर्वहन में शादी जैसा माहौल होता था। बच्चों की टोलियां घर-घर से चंदा लेती थी। टेसू झांझी समिति बनाई जाती थी। शरद पूर्णिमा के दिन शादी का मंडप सजता था। निमंत्रण के कार्ड छपते थे। जरार की माया देवी, बाह की रेनू भदौरिया, रुदमुली की रीता भदौरिया ने बताया कि बैंड बाजे के साथ टेसू की बरात चढ़ती थी। नेग और दावत होती थी।
अब पहले की तरह शहनाई नहीं बजती, विवाह की रस्में जरूर निभाई जाती हैं। आजकल बच्चों की टोलियां टेसू-झांझी के गीत गाते हुए निकलती हैं तो अतीत के दिन याद आ जाते हैं। बाह की संगीता, बिजौली की किरन, धनियापुरा की गीता देवी ने बताया कि मोबाइल और टीवी संस्कृति से लोक परंपरा के निर्वहन में गिरावट आई है।
इतिहासकार डाॅ शिव शंकर कटारे कहते हैं कि टेसू झांझी की लोक परंपरा महाभारत से जुड़ी हुई है। भीम के बेटे घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक महाभारत के युद्ध में कोरवों की ओर से शामिल हुए थे। वक्त बर्बरीक ने महाभारत युद्ध के बाद अपनी प्रेमिका गड़बड़ा (झांझी) को शादी का वचन दिया था। युद्ध में बर्बरीक की वीरता देख कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया और युद्ध को देखने की बर्बरीक की इच्छा पूर्ति के लिए एक पहाड़ी पर छेंकुर के पेड़ पर रख दिया था। महाभारत के युद्ध के बाद बर्बरीक की विवाह व अंतिम संस्कार कर आत्मा को शांति की इच्छा पूर्ति शरद पूर्णिमा को हुई। तभी से यह लोक परंपरा निभाई जा रही है।