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सच्ची मित्रता में नहीं होता स्वार्थ : रामधन भारद्वाज
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- माधवपुरम संकटमोचन बालाजी धाम शिव मंदिर में हुई श्रीमद्भागवत कथा
माई सिटी रिपोर्टर
मेरठ। माधवपुरम संकटमोचन बालाजी धाम शिव मंदिर में श्रीमद्भागवत कथा हुई। महंत मोहित भारद्वाज के सानिध्य में पूजन पंडित कौशल ने कराया। यजमान पंकज गुप्ता ने भी मंत्रोच्चारण किया। कथा में पंडित रामधन भारद्वाज ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण के परम सखा सुदामा का चरित्र भक्ति, निस्वार्थ प्रेम, निर्भीक सादगी और पूर्ण समर्पण का अद्वितीय उदाहरण है। उन्होंने कहा कि सच्ची मित्रता में स्वार्थ नहीं बल्कि त्याग होता है।
भारद्वाज ने बताया कि सुदामा न तो अपनी गरीबी से दुखी हुए और न ही अचानक मिली समृद्धि से मोहित हुए। उनका जीवन प्रमाण है कि प्रभु को प्रिय केवल निष्काम प्रेम और नम्रता है। उन्होंने सुदामा का जन्म एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे संदीपनि मुनि के आश्रम में कृष्ण के सहपाठी थे। दोनों बाल सखाओं ने एक दूसरे के साथ चने बांटकर खाए। जंगल में लकड़ियां चुनीं और गुरु सेवा की। उस समय भी सुदामा की सादगी और सरलता प्रकट होती थी।
कथा व्यास ने बताया कि विवाह के बाद सुदामा अत्यंत दरिद्रता में जीवन व्यतीत करने लगे। उनके पास फटे वस्त्र थे और घर में अन्न का एक दाना भी नहीं रहता था। पत्नी और बच्चे भूखे सोते। सुदामा ने कभी किसी से कुछ मांगा नहीं। वे भगवान का नाम जपते और जो मिल जाए उसी में संतोष कर लेते। उनकी पत्नी ने कृष्ण का स्मरण किया और कुछ चावल पोटली देकर सुदामा को द्वारिका भेज दिया। द्वारिका पहुंचकर फटे वस्त्रों में खड़े सुदामा को द्वारपालों ने रोक दिया। सूचना मिलने पर राजसिंहासन छोड़कर नंगे पांव भागकर आए कृष्ण ने सुदामा के चरण धोए। पुराने दिनों को याद किया। सुदामा ने कृष्ण से कुछ नहीं मांगा। अंत में जब कृष्ण ने चावल का दाना मुंह में डाला तो सुदामा की दरिद्रता दूर हो गई।
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माई सिटी रिपोर्टर
मेरठ। माधवपुरम संकटमोचन बालाजी धाम शिव मंदिर में श्रीमद्भागवत कथा हुई। महंत मोहित भारद्वाज के सानिध्य में पूजन पंडित कौशल ने कराया। यजमान पंकज गुप्ता ने भी मंत्रोच्चारण किया। कथा में पंडित रामधन भारद्वाज ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण के परम सखा सुदामा का चरित्र भक्ति, निस्वार्थ प्रेम, निर्भीक सादगी और पूर्ण समर्पण का अद्वितीय उदाहरण है। उन्होंने कहा कि सच्ची मित्रता में स्वार्थ नहीं बल्कि त्याग होता है।
भारद्वाज ने बताया कि सुदामा न तो अपनी गरीबी से दुखी हुए और न ही अचानक मिली समृद्धि से मोहित हुए। उनका जीवन प्रमाण है कि प्रभु को प्रिय केवल निष्काम प्रेम और नम्रता है। उन्होंने सुदामा का जन्म एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे संदीपनि मुनि के आश्रम में कृष्ण के सहपाठी थे। दोनों बाल सखाओं ने एक दूसरे के साथ चने बांटकर खाए। जंगल में लकड़ियां चुनीं और गुरु सेवा की। उस समय भी सुदामा की सादगी और सरलता प्रकट होती थी।
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कथा व्यास ने बताया कि विवाह के बाद सुदामा अत्यंत दरिद्रता में जीवन व्यतीत करने लगे। उनके पास फटे वस्त्र थे और घर में अन्न का एक दाना भी नहीं रहता था। पत्नी और बच्चे भूखे सोते। सुदामा ने कभी किसी से कुछ मांगा नहीं। वे भगवान का नाम जपते और जो मिल जाए उसी में संतोष कर लेते। उनकी पत्नी ने कृष्ण का स्मरण किया और कुछ चावल पोटली देकर सुदामा को द्वारिका भेज दिया। द्वारिका पहुंचकर फटे वस्त्रों में खड़े सुदामा को द्वारपालों ने रोक दिया। सूचना मिलने पर राजसिंहासन छोड़कर नंगे पांव भागकर आए कृष्ण ने सुदामा के चरण धोए। पुराने दिनों को याद किया। सुदामा ने कृष्ण से कुछ नहीं मांगा। अंत में जब कृष्ण ने चावल का दाना मुंह में डाला तो सुदामा की दरिद्रता दूर हो गई।