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Sirmour: ग्रामीण इलाकों में निभाई जा रही नाल बड़ियां लगाने की प्रथा
सिरमौर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोगों ने पारंपरिक रिती-रिवाज और प्रथाएं को संजोए रखा है। इनमें एक है नाल बड़ियां (डंडी) लगाने की प्रथा। आधुनिकता की इस चकाचौंध में जहां एक ओर हमारे पारंपरिक रिती-रिवाज और प्रथाएं समाप्त हो रही है, वहीं कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में यह पारंपरिक प्रथाएं अभी भी चल रही हैं। धारटीधार, सैनधार और पच्छाद क्षेत्र में आज भी नाल बड़ियां लगाई जाती है। बुजुर्गों के अनुसार पूर्व में यह कार्यक्रम बड़े धूमधाम से मनाया जाता था। आधुनिकता की चाकाचौंध में अब इसकी जगह मोबाइल, टीवी और अन्य मनोरंजन के साधनों ने ले ली है। बुजुर्ग कृष्णा देवी, भागवंती देवी, अमरा देवी, क्रेश्नी देवी बताती है कि यह आयोजन मार्गशीर्ष की संक्रांति से शुरू होता है और पूरे महीने चलता है। पूरे गांव में हर घर में बारी-बारी से इसका आयोजन किया जाता है। समाज सेवी कुशल चौहान ने बताया कि पहले इस कार्यक्रम का आयोजन बहुत शानदार ढंग से होता था। पूरे गांव को आयोजन के लिए आमंत्रित किया जाता था। शाम के समय गांव की सारी महिलाएं एकत्रित होकर इन्हें लगाती थी। इस दौरान पारंपरिक गीत भी गाए जाते थे। उन्होंने बताया कि दावत अनुसार लोगों को उबली हुई मक्की शकर के साथ, कोलथी व गेहू का मूड़ा खाने को दिया जाता था। वर्तमान में मक्की, गेहूं व कोलथी का मुड़ा नहीं बनाया जाता। अब इसके स्थान पर काले चने, खील-पताशे व अन्य सामग्री लोगों में बांटी जाती है। जिस घर में नाल बडिय़ां लगाने का कार्यक्रम होता है, वहां इसके बाद महिलाओं की ओर से सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता था। इसमें पारंपरिक गीत, पहाड़ी कल्चर और स्वांग आदि किए जाते थे। लोग अब रात की बजाए दिन के समय में भी नाल बड़ियां लगा रहे हैं। उड़द, चना सहित अन्य दालों को पीसा जाता है। फिर इसे आटे की तरह गूंथा जाता है। इसके बाद अरबी के डंडियों में इस गूथें हुए मिश्रण की पुताई की जाती है। इसे एक रस्सी में टांगा जाता है। दूसरे दिन इन्हें छोटे-छोटे दुकड़ों में काटकर सुखाया जाता है। करीब एक सप्ताह तक सुखाने के बाद इसे सुरक्षित रख दिया जाता है। इस तरह से यह एक स्वादिष्ट खाद्य व्यंजन तैयार हो जाता है। खासकर मेहमानवाजी के लिए इस व्यंजन को परोसा जाता है। बुजुर्गों के अनुसार यह एक स्वादिष्ट और गुणकारी खाद्य सामग्री है।
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