टैरिफ वॉर: अमेरिका की धमकी और भारत की प्रतिक्रिया
- 'टैरिफ वार' के जरिए अमरीका सिर्फ भारत- चीन ही नहीं बल्कि अन्य देशों के आयात के दरवाजे भी बन्द करना चाहता है। अमरीका ने भारत पर रूस से तेल आयात बढ़ाने पर 50% टैरिफ लगाने की घोषणा की है।
- ट्रम्प ने का कहना है कि रूस से तेल खरीद के मामले में भारत चीन के करीब है।
विस्तार
भारत और अमेरिका के बीच टैरिफ को लेकर नित्य नए बयान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के आ रहे हैं। यह एक तरह से पूरी दुनिया में अमरीकी चौधराहट को कायम करने की डोनाल्ड ट्रम्प की सनक के अलावा और कुछ नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्रपति ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में भारत, रूस और चीन को लेकर 'टैरिफ वार' के बहाने कूटनीतिक दबाव बनाने की धमकियां बिल्कुल अप्रत्याशित थी।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कर्यकाल के शुरुआत के समय ही वाशिंगटन स्थित 'कार्नेगी एंडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस' के वरिष्ठ फेलो और भारत -अमेरीकी सम्बन्धों के विशेषज्ञ एश्ले टेलिस कहते हैं कि "हम उथल-पुथल भरे राष्ट्रपति के कार्यकाल का गवाह बनने जा रहे हैं। इस वक्त डोनाल्ड ट्रंप बेहद आत्मविश्वास से भरे है। उनके साथ उनके शागिर्दों और पैदल सिपाहियों की ऐसी टोली हैं, जो उन्हें क्रांति का दूत मानती हैं। वे जड़ पर चोट करने को आतुर है। वे ऐसे मुद्दे उठाएंगे जिनके बारे में पहले किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने सोचा भी नहीं होगा।
एकाधिकारवादी स्थिरता में पारम्परिक अमरीकी भूमिका के सन्दर्भ में गम्भीर फेरबदल के पूरे आसार हैं।" डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ही इसकी आहट सुनायी देने लगी थी। उनके के समर्थकों ने एजेंडा-47 के तहत घरेलू और विदेशी मोर्चे पर क्या कुछ करना हैं, बाकायदा उसकी एक सूची तैयार कर अमेरिकी मतदाताओं के सामने रखा और वादा किया कि अगर डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतेंगे, तो इन मुद्दों को त्वरित ढ़ंग से लागू किया जाएगा। इस एजेंडा के केन्द्र में मुख्य जोर अमरीकी हित पहले और दूसरे देशों के हित दूर कहीं दूसरे स्थान पर होंगे। इस रणनीति को साधने पर ही फिलहाल ट्रम्प आगे बढ़ रहे है।
इस सन्दर्भ में खासकर भारत-अमरीका आपसी सम्बन्धों को समझने के लिहाज से डोनाल्ड ट्रम्प के पहले कार्यकाल का एक तरह से अन्तिम समय को याद करना समीचीन होगा। अमेरीका के टेक्सास के ह्यूस्टन शहर में 'मोदी हाउडी' नाम से प्रायोजित कार्यक्रम का दृश्य आज भी लोगों को याद होगा।
22 सितम्बर 2019 की तिथि और लगभग 50000 भारतीय समुदाय के लोगों की मौजूदगी। अमरीका की जमीन पर शायद पहली बार भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भारतीय चुनाव अभियान की तर्ज पर 'इस बार ट्रम्प सरकार' का नारा लगाते नजर आए। इस नारे को एक तरह से अमरीका में रहने वाले लगभग 52 लाख भारतीय समुदाय के लोगों को डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में लामबंद करने की कोशिश के रूप में देखा गया।
भारत में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता उस वक्त चरम पर थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस अपील का इतना ही असर हुआ कि अमेरिका राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे जो बिडेन के पक्ष में आए। जो बिडेन 20 जनवरी 2021को अमरीका के 46वें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। उनके कार्यकाल में जैसा कयास लगाया जा रहा था , उसके ठीक विपरीत भारत- अमरीकी सम्बन्धों में उतनी कड़वाहट और गिरावट नहीं आयीं जैसा कि 'मोदी को सच्चा' दोस्त बताकर डोनाल्ड ट्रम्प इस वक्त भारत सरकार से बरत रहे है।
ऐसे दो अवसर भाजपा के नेतृत्व वाले राजग सरकार के समय आया ;जब भारत अमेरिका के सामने झुकने के बजाय तनकर खड़ा हो सकता था।अमरीका की हर शर्त मानने से साफ -साफ इनकार कर सकता है। पहला अटल बिहारी वाजपेयी के पोखरण -2 के विस्फोट के समय, जब अमरीका ने भारत पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगाया था और दूसरा अभी जब नरेन्द्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में।
50% टैरिफ लगाने की घोषणा
अमरीका ने भारत पर रूस से तेल आयात बढ़ाने पर 50% टैरिफ लगाने की घोषणा की है। भारत की ओर से विदेश सचिव बिल्कुल सधे अंदाज में अन्तर्राष्ट्रीय प्रोटोकॉल को ध्यान में रखते हुए सिर्फ इतना ही कहने की स्थिति में है कि "अमरीका आज भी रूस से यूरेनियम और अपने इलेक्ट्रॉनिक वाहन उद्योग के लिए पैलेडियम खरीद रहा है। ऐसे में भारत को निशाना बनाना अन्यायपूर्ण और अनुचित है।"
भारत सरकार की ओर से व्यक्त इस प्रतिक्रिया से साफ जाहिर होता है कि यह एक कूटनीतिक प्रतिक्रिया ही है। इसके ठीक विपरीत रिपब्लिकन नेता निक्की हेली का यह बयान कि "अमरीका को भारत जैसे मजबूत सहयोगी से रिश्ता नहीं बिगाड़ना चाहिए।निक्की ने एक्स पर अपने एक पोस्ट में कहा है कि अगर भारत को रूस से तेल नहीं खरीदना चाहिए, तो चीन जो एक प्रतिकूल देश है; और रूस तथा ईरानी तेल का नम्बर एक का खरीददार भी , उसे अमरीका की ओर से 90 दिनों के टैरिफ स्थगन की मोहलत क्यों दी गयी?" यही नहीं वर्ष 2024 में चीन ने रूस से 62अरब डालर का तेल आयात किया, जब कि भारत ने 52अरब डालर की ही तेल की खरीदारी किया।
अब डोनाल्ड ट्रम्प ने घोषणा किया है कि "रूस से तेल खरीद के मामले में भारत चीन के करीब है। जब उनसे पूछा गया कि क्या चीन पर भी टैरिफ बढ़ाने की सम्भावना है? राष्ट्रपति ट्रंप का कहना था कि यह सम्भव है, फिर भारत पर टैरिफ के बहाने हाथ मरोड़ने की धमकियां अमरीकी प्रशासन की ओर से बार- बार क्यों दी जा रही है?
अमेरिका एक तरह से भारत की चारों ओर से रणनीतिक और आर्थिक घेराबन्दी कर रहा है और खुद रूस से अपनी जरूरत के लिए यूरेनियम और उर्वरकों का आयात कर रहा है।
ऐसा दोहरा मानदंड क्यों? ऐसे जरूरी सवालों का अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का जवाब है कि 'वे पता करके बतायेंगे।' हालांकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दिमाग में यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि दो देशों के बीच दोस्ती का एक ही मतलब है "आप समझौते दोस्ती निभाने के लिए नहीं, पैसे कमाने के लिए करते हैं।" इसलिए ट्रम्प प्रशासन में दोस्ती का सीधा अर्थ है लाभ में साझेदारी।काश!
हमारे विदेशी राजनयिकों को ट्रम्प प्रशासन के दूसरे कार्यकाल में व्यापारिक रुख में आये इस बदलाव का पूर्वानुमान होता, तो शायद अपने देश का विदेशी राजनय बदलती विश्व व्यवस्था के इस निर्णायक मोड़ पर इतना बेबस-लाचार नजर नहीं आते। हम पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति हेनरी किसिंजर के इस हिदायत से भी कुछ ज्यादा सीख नहीं ले सकें कि "अमेरिका से दोस्ती घातक है। पर दुश्मनी खतरनाक हो सकती है।"
क्या इसका एक अर्थ यह नहीं हो सकता है कि-( जैसा कि हिन्द स्वराज में जिक्र मिलता है) वे चालबाजी करके पहले रिझाते है और हम से काम लेते हैं। पैसा ही उनका ख़ुदा है। यह ध्यान रखने से बाकि सब बातें साफ हो जायेंगी।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि 'टैरिफ वार' के जरिए अमरीका न सिर्फ भारत- चीन ही नहीं बल्कि अन्य देशों के आयात के दरवाजे भी बन्द करना चाहता है। इसकी मुख्य वज़ह यह बतायी जा रही है कि -राष्ट्रपति ट्रंप की नजर में आखिर अमेरिका पर ही विश्व व्यवस्था बनाये रखने की अकेली जिम्मेदारी क्यों है? इसके लिए वह हर किसी का खर्च क्यों उठाता रहें और बदले में उसे कुछ हासिल भी न हो। इसलिए बिना कुछ लेन- देन के हम पूरी दुनिया की सुरक्षा की गारंटी सुनिश्चित क्यों करें?
राष्ट्रपति ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में विदेशी मामलों में आया यह बदलाव गौरतलब है। ट्रम्प प्रशासन के इस कार्यकाल में पूरी मुस्तैदी से हर समझौते की गहन पड़ताल हो रही है और लाभ-लागत अनुपात से ही उसकी वैश्विक रणनीति तय की जा रही है।
भारत हाल तक अमरीका का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार रहा है। सन् 2021 से सन् 2024 तक भारत के कुल निर्यात में अमरीका की भागेदारी 18% और आयात में 6.22% तथा द्विपक्षीय व्यापार में 10.37% की हिस्सेदारी थी।यह निर्यात 30 क्षेत्रों में फैला था। कृषि के क्षेत्र और 24 उघोगों क्षेत्र इसमें शामिल हैं।
भारत सरकार का दावा है कि वह कृषि और डेयरी क्षेत्र अमरीका के लिए नहीं खोलना चाहता, क्यों कि यह एक बेहद संवेदनशील क्षेत्र है और देश की लगभग 70% आबादी इस पर निर्भर हैं। अमेरिका के व्यापारिक हस्तक्षेप से इन किसानों के सामने जीवन -यापन की विकट स्थिति पैदा होने की सम्भावना है।अमरीका और भारत के बीच द्विपक्षीय समझौते में यह सबसे बड़ी बाधा भी है।
अमरीका को शायद ही कभी कोई परवाह होती है कि उसकी नीतियों को लागू होने से आमजन पर कितना घातक असर होगा? अमरीका का व्यवसायिक हित तब और ठीक से सधता है, जब उसकी पूंजी और संसाधनों की बेरोकटोक आवाजाही की खूली छूट हों।
व्यापार के मामले में ही नहीं युद्ध के मैदान में भी है अमरीका का रवैया हमेशा दोहरे मानदंड पर आधारित रहा है। उसकी एक मिसाल इराक युद्ध के दौरान भी देखने को मिला।
अमेरिकी अखबार 'लास एंजिल्स टाइम्स ' की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इराक युद्ध में अमरीकी सैनिकों से ज्यादा भाड़े के सैनिक को तैनात किया गया था।ऐसे किराये पर अमरीका की ओर से लड़ने वाले सैनिकों की संख्या (लगभग 180,000) थी। भाड़े पर अमरीका की ओर से लड़ने वाले 1200 सैनिक मारे गये। पर विदेशी धरती पर मरने वाले अमरीकी सैनिकों की तरह न उन्हें अमरीका के राष्ट्रीय झंडे में दफन किया गया न राष्ट्रीय सम्मान ही दिया गया।
जाहिर है कि भाड़े पर दूसरे देश की ओर से लड़ रहे इन सैनिकों को निर्दोष लोगों को मारने में भी शायद ही कोई हिचक होती होगी। ऐसा वाकया इराक युद्ध के समय घटित भी हो चुका है। भाड़े के सैनिक उपलब्ध कराने वाली अमरीकी कम्पनी 'ब्लैक वाटर वर्ल्ड वाइड 'के सुरक्षा गार्डों ने बगदाद में ऐसे 17 निर्दोष लोगों की हत्या कर दिया।
इराक युद्ध के दौरान इस कम्पनी को एक बिलियन डॉलर का ठेका प्राप्त हुआ। यह कम्पनी अपने ऐसे ही अपकर्मों के लिए सैदव विवादों के केंद्र में रही है और उसे अमरीका की कोर्ट ने ऐसे कुकृत्य के लिए सजा भी सुनायी गयी है।
विश्व में कहीं भी लड़ा जाने वाला युद्ध सैन्य हथियारों की आपूर्ति के लिहाज से अमरीका के लिए किसी अचूक अवसर से कम नहीं होता है। दुनिया में सैन्य हथियारों की आपूर्ति में अकेले अमेरिका की हिस्सेदारी 43%है।यह आपूर्ति फ्रांस जैसे देश से चार गुना ज्यादा है. अमरीका के उपभोक्ता बाजार में अवैध ड्रग्स का कारोबार लगभग 200विलियन डॉलर से 750बिलियन डॉलर के बीच प्रतिवर्ष है।
यह पूरी दुनिया में होने वाले अवैध ड्रग्स कारोबार का लगभग 30% से 50% के बीच है। अगर अमेरीका के लिए व्यापार और डॉलर की कमायी ही उसका खुदा है, तो आसानी से समझा जा सकता है कि किस तरह की विश्व व्यवस्था बनाने में अमरीका की रुचि है और आगे भी हो सकती है।
भारत पर अमरीकी 'टैरिफ वार' का कपड़ा , फैब्रिक, लेदर उद्योग और कालीन के निर्यात पर खासा असर पड़ेगा. मछली प्रसंस्कृत मांस और मसालों के निर्यात पर भी असर पड़ने की संभावनाएं हैं. भारत सरकार को निर्यात में होने वाले नुकसान की भरपायी का समयानुकूल उपाय करना चाहिए। भारत सरकार के लिए यही आपदा को अवसर में बदलने का एक सुनहरा अवसर भी है।
अमरीका के इन घोषित नीतियों की वजह से क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर कई सामरिक और व्यापारिक समझौते होने के आसार नजर आ रहे हैं। सम्भव है कि इसकी शुरुआत एस.सी.ओ. (संघाई कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन) और ब्रिक्स की आगामी होने वाले सम्मेलन में तय हो जाए। इसलिए अमेरिका को समझना चाहिए कि जिद और जूनून एक हद तक ही सफल हो सकता है। ज्यादा तानने पर टूट जाता है। इस सवाल पर फिलहाल सबसे ज्यादा जरूरत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को सोचने की है।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोडों चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ परी जाय ।।
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