शख्सियत: एशियन गेम्स में टूटा सपना, फिर भी नहीं मानी हार, पेरिस में 100 और 200 मीटर दौड़ में मारा मैदान
पैरा एशियन गेम्स में पदक नहीं मिला तो प्रीति टूट गई थीं, लेकिन उन्होंने अपना आत्मविश्वास कमजोर नहीं होने दिया और दिल्ली में कड़ी तैयारी की। नतीजा ये हुआ कि पैरिस में प्रीति ने देश की झोली में दो कांस्य पदक डाले।

विस्तार
हार हो जाती है जब मान लिया जाता है,

जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है।
यह पंक्तियां पैरालंपिक में देश के लिए दो कांस्य पदक जीतने वाली एथलीट गंगानगर निवासी प्रीति पाल पर सटीक बैठती हैं। उन्होंने कोच के सपोर्ट, अपने आत्मविश्वास और कड़ी मेहनत से मुकाम हासिल किया। पैरा एशियन गेम्स में पदक न आने के बाद प्रीति टूट चुकी थीं, लेकिन उन्होंने अपना आत्मविश्वास कमजोर नहीं होने दिया और दिल्ली में कड़ी तैयारी की। जिसके बलबूते उन्होंने पैरालंपिक खेलों में 100 मीटर और 200 मीटर दौड़ में कांस्य पदक जीता। प्रीति ने यहां तक पहुंचने के लिए कड़ा संघर्ष किया। क्या-क्या परेशानियां आईं, पदक जीता तो कैसा लगा। इन सभी सवालों के जवाब प्रीति ने मंगलवार को अमर उजाला कार्यालय पहुंचकर दिए। उनके साथ अंतरराष्ट्रीय एथलीट फातिमा खातून, उनकी बहन नेहा व भाई मौजूद रहे।
ओलंपिक में पदक जीतना और पोडियम पर खड़े होने का अनुभव कैसा रहा ?
ओलंपिक में पोडियम पर खड़ा होना हर खिलाड़ी का सपना होता है। पोडियम पर मुझे वे सब बातें याद आ गईं जो जो मेरे साथ हुआ। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैंने पदक जीता है।
आप एथलीट कैसे बनीं?
मुझे दौड़ना पसंद था। सोशल मीडिया पर मैंने देखा कि कैसे दिव्यांग खिलाड़ी दौड़ में हिस्सा ले रहे हैं। यही सोचकर 2018 में मैं कैलाश प्रकाश स्पोर्ट्स स्टेडियम पहुंची और स्टेट चैंपियनशिप में सीधे प्रतिभाग किया और पदक जीता। इससे मेरे घरवाले भी अचंभे में पड़ गए। दादा ने तो मिठाई तक बांट दी।
यहां तक पहुंचने में किसका हाथ रहा ?
मुझे पैरा एथलीट फातिमा खातून ने यहां तक पहुंचाया। उन्होंने ही मुझे मेरठ से दिल्ली पहुंचाया और तैयारी कराई। दिल्ली में कोच और पैरा एथलीट सिमरन के साथ तैयारी की। वह मेरी आदर्श रहीं हैं।
ऐसा कोई पल जब लगा हो कि अब नहीं हो पाएगा ?
दौड़ते समय साथी खिलाड़ी भी ताने देते थे कि पैरा खिलाड़ी तो आसानी से आगे बढ़ जाते हैं, उनकी बातों से मन दुखी होता था। पैरा एशियन गेम्स में चौथा नंबर आने पर तो पूरी तरह से टूट गई थी, इसके बाद खुद पर विश्वास रखा और राह आसान हुई।
ट्रेनिंग में किस तरह की पाबंदिया होती हैं ?
कोच के द्वारा एक्सरसाइज और डाइट की पूरी प्लानिंग की जाती है। मुझे छोले भटूरे और मीठा पसंद था, कोच ने सब छुड़वा दिया। यहां तक की मम्मी ने घर से मिठाई बनाकर दी थी वह भी नहीं खाई।
कब लगा कि ओलंपिक जा रही हो ?
मुझे अभी तक विश्वास नहीं हो रहा कि मैंने ओलंपिक में पदक जीता है। जब पेरिस पहुंची तो फ्लाइट में लगा कि मैं ओलंपिक जा रही हूं।
पेरिस पहुंचने के बाद जहन में क्या था ?
पेरिस पहुंचते ही मेरी नींद उड़ गई। वहां ट्रैक देखकर और भीड़ देखकर डर सा लगने लगा, मुझे लगा अब कैसे होगा।
दिमाग में क्या चल रहा था?
दौड़ते समय मुझे सिर्फ फिनिशिंग लाइन दिख रही थी। जब आखिर के 20 मीटर रह गए तो लगा कि अब तो मेडल आ गया। मैंने कुछ नहीं देखा सिर्फ ट्रैक को देख रही थी।
आगे अब क्या तैयारी है ?
अब थोड़ा रेस्ट होगा और एक-दो माह बाद से अगले साल होने वाली वर्ल्ड चैंपियनशिप की तैयारी करूंगी। एशियन गेम्स में भी इस बार पदक लाना है और 2028 के पैरालंपिक में पदक का रंग बदलना है।
बचपन में हो गई थी सेरेब्रल पाल्सी नामक बीमारी
प्रीति पाल को बचपन में सेरेब्रल पाल्सी (सीपी) नाम की बीमारी हुई थी। बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. तरुण गोयल ने बताया कि सीपी विकारों का एक समूह है जो मस्तिष्क को प्रभावित करता है। यह तंत्रिका तंत्र के कार्यों को प्रभावित करता है, जैसे कि चलना, सीखना, सुनना, देखना और सोचना। जन्म से ही प्रीति के पैर जुड़े हुए थे, बाद में ऑपरेशन कराकर उन्हें अलग किया गया।
पिता अनिल ने उनका काफी उपचार कराया। प्रीति का जन्म साल 2000 में हुआ था। पैदा होने के छह दिन बाद ही कमजोर पैर के कारण उस पर प्लास्टर लगाया गया था। पांच साल की उम्र में वह कैलिपर्स पहनती थीं। अगले 8 साल तक उनका जीवन ऐसा ही रहा। 17 साल की उम्र में उन्हें सोशल मीडिया के जरिए पैरालंपिक खेलों के बारे में पता चला।
अपने बच्चों को न समझें लाचार: फातिमा
अंतरराष्ट्रीय एथलीट फातिमा खातून ने कहा कि वह 2018 में प्रीति पाल से मिली थी। वह बहुत मेहनती है। उसकी मेहनत का ही नतीजा है कि आज उसने दो पदक जीते हैं। फातिमा ने दिव्यांग बच्चों के माता-पिता से भी अपील की है कि वह अपने बच्चों को लाचार न समझें। उन्हें उनकी जिम्मेदारी समझाएं और आगे बढ़ाएं।