जिले के दो ग्रामों से ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं, जो बताती हैं कि सरकारी दावे और जमीनी हालात में कितना फर्क है। राज्य में स्कूलों को बेहतर बनाने की बात बार-बार दोहराई जाती है लेकिन इन गांवों में बच्चे आज भी झोपड़ी में पढ़ाई करने को मजबूर हैं। हालात देखकर यही लगता है कि शिक्षा व्यवस्था सिर्फ कागजों में मजबूत है, जमीन पर नहीं।
ग्राम हल्दी करेली की प्राथमिक शाला करेली में पहली से पांचवीं तक 19 बच्चे हैं। स्कूल का पुराना भवन जर्जर होने के कारण पिछले सत्र में तोड़ दिया गया था। भवन गिराने के बाद नया निर्माण शुरू होना चाहिए था लेकिन अभी तक कोई काम नहीं हुआ है। शिक्षा विभाग की तरफ से बच्चों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं दी गई। मजबूर होकर शिक्षक और गांव के लोगों ने खुद एक झोपड़ी तैयार की ताकि बच्चों की पढ़ाई बंद न हो। यह झोपड़ी बारिश और हवा में टिक पाएगी या नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं। फिर भी बच्चों का दिन इसी अस्थायी ढांचे में गुजर रहा है।
दूसरी स्थिति ग्राम भालपुरी के प्राथमिक शाला शिकारी टोला की है। यहां पहली से पांचवीं तक करीब 40 बच्चे पढ़ते हैं। इस स्कूल का भवन इतना कमजोर हो चुका है कि छत से प्लास्टर झड़ रहा है। शिक्षक डर के कारण बच्चों को भवन के अंदर नहीं बैठाते। विभाग ने भवन गिराने के आदेश तो दे दिए लेकिन काम कब शुरू होगा, इसकी जानकारी किसी के पास नहीं। मजबूरी में यहां भी बच्चों को झोपड़ी में बैठाकर पढ़ाना पड़ रहा है।
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दोनों जगहों पर शिक्षक कई बार अधिकारियों को लिखित और मौखिक रूप में जानकारी दे चुके हैं लेकिन किसी ने हालात देखने की जरूरत तक नहीं समझी। न मरम्मत के लिए बजट जारी हुआ, न अंतरिम व्यवस्था की कोई योजना आई। गांव वालों का कहना है कि बच्चों की सुरक्षा रोज जोखिम में रहती है लेकिन विभाग उदासीन बना हुआ है।
राज्य सरकार हर साल शिक्षा के लिए बड़ी राशि खर्च करने का दावा करती है। योजनाओं, बजट और प्रस्तावों की लंबी सूची भी जारी होती है लेकिन आदिवासी बहुल डिंडौरी में बच्चों की पढ़ाई तिरपाल और खपरैल पर टिके होने से यह साफ है कि इन योजनाओं का असर इन इलाकों तक नहीं पहुंच पा रहा। यहां न सुरक्षित भवन है, न पर्याप्त संसाधन।
स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर अधिकारियों ने समय पर ध्यान दिया होता तो बच्चे ऐसे हालात में पढ़ने को मजबूर नहीं होते। अब सवाल यह है कि लंबे समय से लंबित निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी कौन लेगा। क्या यह केवल लापरवाही का नतीजा है या फिर प्राथमिक शिक्षा को धीरे-धीरे निजी संस्थानों पर छोड़ने की एक और कोशिश।
इन गांवों की स्थिति यह याद दिलाती है कि जब तक बुनियादी ढांचे पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, तब तक शिक्षा का अधिकार सिर्फ एक नारा ही बना रहेगा।