देशभर में आज विजयदशमी का पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है। यूं तो इस दिन रावण के पुतले का दहन किया जाता है, लेकिन राजस्थान के कोटा जिले के नांता क्षेत्र में आज भी करीब 150 साल पुरानी परंपरा निभाई जाती है। यहां रावण का दहन नहीं किया जाता, बल्कि उसे पैरों से रौंदा जाता है और इसके बाद अखाड़ों में कुश्ती प्रतियोगिता भी आयोजित होती है।
नांता के लिम्बजा मातेश्वरी मंदिर स्थित बड़े अखाड़े में हर साल की तरह इस बार भी पहलवानों ने रावण की प्रतिमा को पैरों से कुचलकर उसका वध किया।
मिट्टी से तैयार होती है रावण की प्रतिमा
बड़ा अखाड़ा नांता के अध्यक्ष सोहन जेठी ने बताया कि जेठी समाज बरसों से इसी परंपरा का पालन करता आ रहा है। इसके लिए अखाड़े की पवित्र मिट्टी से रावण की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बनाने की प्रक्रिया श्राद्ध पक्ष में शुरू होती है और इसे तैयार करने में लगभग 7 दिन लगते हैं। नवरात्र स्थापना से एक दिन पहले यह पूरी तरह तैयार हो जाती है।
इस बार भी मिट्टी को दूध, घी, शहद, दही और गेहूं मिलाकर उपजाऊ बनाया गया, ताकि उसमें ज्वार उग सकें। रावण का चेहरा भी मिट्टी से उकेरा गया और नवरात्र के नौ दिनों तक उसकी प्रतिमा पर हरे-भरे ज्वार उगते रहे।
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नवरात्र में बंद रहते हैं मंदिर के पट
सोहन जेठी ने बताया कि नवरात्र के नौ दिनों तक लिम्बजा मातेश्वरी मंदिर के पट बंद रहते हैं। इस दौरान केवल पुजारी और व्यवस्थापक ही अंदर जाते हैं। भक्तों के लिए मंदिर के पट नवमी के दिन हवन के बाद ही खोले जाते हैं। नवरात्र भर अखाड़े में रोजाना विशेष आयोजन होते हैं और रात को गरबा भी आयोजित किया जाता है। दशहरे के दिन सुबह विशेष कार्यक्रमों के बाद पहलवान रावण से प्रतीकात्मक कुश्ती लड़ते हैं और फिर उसे पैरों से रौंदकर नष्ट कर देते हैं।
रावण वध के बाद समाज के बुजुर्ग ज्वार का वितरण करते हैं, जिसे एकता और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। लोग बड़े-बूढ़ों से आशीर्वाद लेते हैं और पूरे समुदाय की खुशहाली की कामना की जाती है।
जेठी समाज का इतिहास
समाज के इतिहास की बात करें तो जेठी समाज मूल रूप से गुजराती ब्राह्मण है, जिन्हें पहलवानी का विशेष शौक था। करीब 300 साल पहले यह समाज गुजरात के कच्छ क्षेत्र से कोटा आया था। उस समय कोटा के महाराजा उम्मेद सिंह उनकी कुश्ती कला से प्रभावित हुए और उन्हें यहां बसने का आग्रह किया। राजपरिवार ने किशोरपुरा और नांता में अखाड़े बनवाए।
रियासत काल में दशहरे पर निकलने वाली बृजनाथजी की सवारी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी जेठी समाज के पहलवानों को ही दी जाती थी। उस समय उनके परिवारों का पूरा खर्च दरबार उठाता था। वर्तमान में कोटा शहर में जेठी समाज के लगभग 300 परिवार रहते हैं और यह परंपरा आज भी उसी आस्था के साथ निभाई जाती है।