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बचे रहें मूल्य, सरोकार, जरूरी है प्रतिरोध
अमर उजाला ब्यूरो इलाहाबाद
Updated Thu, 29 Dec 2016 01:08 AM IST
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‘अमर उजाला’ की ओर से बुधवार को सिविल लाइंस स्थित ‘अमर उजाला’ दफ्तर में आयोजित ‘वर्ष 2017: चुनौतियां और संभावनाएं’ विषयक संवाद में जुटे साहित्य के नामवर हस्ताक्षरों ने समय की नब्ज टटोली। वक्त के आईने में साहित्य और समाज की मौजूदा बनती, बिगड़ती तस्वीर उतारी। मौकापरस्ती के दौर में क्षीण होते मूल्यों और संवेदनाओं पर चिंता जताई। सोशल मीडिया की खूबियों, खामियों की परत दर परत पड़ताल की तो साहित्य के क्षेत्र में पैठ बनाती नई तकनीक को कोसने के बजाए उससे कदमताल मिलाते हुए उम्मीदों की मशाल लेकर आगे बढ़ने की पुरजोर वकालत भी की।
जुटे रचनाकारों ने कहा, सोशल मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि यह पब्लिक फोरम है। यह हर आम और खास को प्लेटफार्म देता है। हां, हमें इसके इस्तेमाल के प्रति सजग, सतर्क होना पड़ेगा। यह भी कि गंभीर साहित्य तो किताबों के जरिए ही आएगा। हर देश-काल में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों की रचनात्मक भूमिका रही है। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में मचे हड़बोंग के बीच लेखन को बचाए रखना बड़ी चुनौती है। ‘सबके मुंह में हैं जबानें, बोलता कोई नहीं’ को झुठलाते हुए बुद्धिजीवियों, रचनाकारों को अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझनी होगी। ऐसा होगा, तभी समाज को सही दिशा, सही राह मिलेगी।
साहित्य कोई समूह की चीज नहीं है। यह शाश्वत और व्यक्तिगत प्रयास है। साहित्य और संस्कृति की चुनौतियां किसी एक तारीख के साथ बदलती भी नहीं। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में हड़बोंग मचा है, जिसका असर लेखन पर भी पड़ा है। सत्ता की धमकियां दबाव बनाती हैं। सवाल यह है कि व्यवस्था की विसंगतियों को लेकर कोई लेखक कितना हस्तक्षेप करता है। चुनौती यह भी कि विसंगति का विरोध करेंगे या चुप रहेंगे। लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की आवाज का अर्थ होता है। इसलिए चुप्पी तोड़िए क्योंकि यह खतरनाक है। यदि कोई लेखक प्रतिरोध नहीं कर सकता तो उसकी लेखकीय संभावनाएं मर जाएंगी।
दूधनाथ सिंह,
वरिष्ठ कथाकार, अध्यक्ष जनवादी लेखक संघ
तकनीक के प्रयोगों की तमाम खूबियां हैं, आप उसे दरकिनार नहीं कर सकते हैं। इसे शिकायती अंदाज में भी नहीं लिया जाना चाहिए। चुनौती यह है कि साहित्य कैसे तकनीक का अधिक से अधिक और सार्थक उपयोग करे। आदमी ने चीजों को बनाया, सोचना होगा कि आज चीजें आदमी को क्या बना रही हैं। नए दौर में हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी।
प्रो.राजेंद्र कुमार,
वरिष्ठ आलोचक, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
सोशल मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया, इनका विरोध करने से बात नहीं बनेगी। यह माध्यम हर किसी को एक बड़ा कैनवास उपलब्ध कराते हैं, जहां उसकी रचना को जगह मिल सकती है। कोशिश यह होनी चाहिए कि इस सशक्त माध्यम का अधिक से अधिक , सार्थक और बेहतर इस्तेमाल कर सकें।
अजामिल, वरिष्ठ कवि
तकनीक के विकास की कई खूबियां हैं लेकिन इसके बीच हमारी संवेदनाएं कम हो गई हैं। महिलाओं के प्रति हिंसा और अनादर का भाव भी बढ़ा है। वर्चस्व और बाजारवाद के दौर में संबंधों, रिश्तों पर खतरा बढ़ा है। साथ ही संस्कृति और भाषा के प्रति लगाव कम हुआ है। तकनीकी तानेबाने के बीच भाषा-संस्कृति को बचाए रखना मौजूदा दौर की सबसे बड़ी चुनौती है।
प्रो.अनिता गोपेश, वरिष्ठ कथालेखिका
पुरस्कारों का हाल ऐसा बदहाल है कि मौजूदा दौर में इसे हासिल करने से मान नहीं बढ़ता बल्कि अपमान जैसा महसूस होता है। दरअसल पुरस्कार कसौटी पर खरे नहीं परे होते जा रहे हैं, ऐसे में उसका पहले जैसा महत्व नहीं रह गया है। कोशिश हो कि किताबें सिर्फ लाइब्रेरियों तक ही सीमित न रहें। अपनी भाषा,संस्कृति को बचाना ही दौर की बड़ी चुनौती है।
बुद्धिसेन शर्मा, वरिष्ठ कवि
‘कौन है, संवेदना है, कह दो अभी घर पर नहीं हैं’ का माहौल ही समाज में मुखरित हो रहा है। निरंतर संवेदनाएं मर रही हैं। यह ऐसा दौर आया है जिसमें बड़े से बड़े मुद्दे हमें न छूते, न ही विचलित करते हैं। ऐसे में साहित्य के माध्यम से हमें हर हाल में, संवेदनाओं, मानवीय मूल्यों,सरोकारों को सहेजना ही होगा, तभी मनुष्यता बचेगी।
यश मालवीय, वरिष्ठ कवि
किताबों से रिश्ता टूटना, सभ्यता से छूटने केबराबर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जहां पहले किताबें हाथोंहाथ ली जाती थीं, वहीं अब दी जाती हैं। आमलोगों में अखबार, किताबें पढ़ने का चलन कम हुआ है। हर जगह नफा-नुकसान के नजरिए से सोचा जा रहा है। और तो और बुद्धिजीवी भी इसके अपवाद नहीं हैं। कलम को हाशिए पर जाने से बचाना होगा।
प्रो.एए फातिमी, वरिष्ठ आलोचक
किताबों की अपनी अहमियत है। किताबें विचार देती हैं जबकि सोशल मीडिया पर कई बार हमें वह वैचारिक दृष्टि और गंभीरता नहीं दिखती है। आमतौर पर यही वजह है कि उर्दू के लेखक सोशल मीडिया से परहेज करते हैं। रचनाकार सच के साथ खड़ा रहे, यही इस दौर की चुनौती है।
असरार गांधी, वरिष्ठ कथाकार
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जुटे रचनाकारों ने कहा, सोशल मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि यह पब्लिक फोरम है। यह हर आम और खास को प्लेटफार्म देता है। हां, हमें इसके इस्तेमाल के प्रति सजग, सतर्क होना पड़ेगा। यह भी कि गंभीर साहित्य तो किताबों के जरिए ही आएगा। हर देश-काल में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों की रचनात्मक भूमिका रही है। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में मचे हड़बोंग के बीच लेखन को बचाए रखना बड़ी चुनौती है। ‘सबके मुंह में हैं जबानें, बोलता कोई नहीं’ को झुठलाते हुए बुद्धिजीवियों, रचनाकारों को अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझनी होगी। ऐसा होगा, तभी समाज को सही दिशा, सही राह मिलेगी।
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साहित्य कोई समूह की चीज नहीं है। यह शाश्वत और व्यक्तिगत प्रयास है। साहित्य और संस्कृति की चुनौतियां किसी एक तारीख के साथ बदलती भी नहीं। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में हड़बोंग मचा है, जिसका असर लेखन पर भी पड़ा है। सत्ता की धमकियां दबाव बनाती हैं। सवाल यह है कि व्यवस्था की विसंगतियों को लेकर कोई लेखक कितना हस्तक्षेप करता है। चुनौती यह भी कि विसंगति का विरोध करेंगे या चुप रहेंगे। लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की आवाज का अर्थ होता है। इसलिए चुप्पी तोड़िए क्योंकि यह खतरनाक है। यदि कोई लेखक प्रतिरोध नहीं कर सकता तो उसकी लेखकीय संभावनाएं मर जाएंगी।
दूधनाथ सिंह,
वरिष्ठ कथाकार, अध्यक्ष जनवादी लेखक संघ
तकनीक के प्रयोगों की तमाम खूबियां हैं, आप उसे दरकिनार नहीं कर सकते हैं। इसे शिकायती अंदाज में भी नहीं लिया जाना चाहिए। चुनौती यह है कि साहित्य कैसे तकनीक का अधिक से अधिक और सार्थक उपयोग करे। आदमी ने चीजों को बनाया, सोचना होगा कि आज चीजें आदमी को क्या बना रही हैं। नए दौर में हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी।
प्रो.राजेंद्र कुमार,
वरिष्ठ आलोचक, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
सोशल मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया, इनका विरोध करने से बात नहीं बनेगी। यह माध्यम हर किसी को एक बड़ा कैनवास उपलब्ध कराते हैं, जहां उसकी रचना को जगह मिल सकती है। कोशिश यह होनी चाहिए कि इस सशक्त माध्यम का अधिक से अधिक , सार्थक और बेहतर इस्तेमाल कर सकें।
अजामिल, वरिष्ठ कवि
तकनीक के विकास की कई खूबियां हैं लेकिन इसके बीच हमारी संवेदनाएं कम हो गई हैं। महिलाओं के प्रति हिंसा और अनादर का भाव भी बढ़ा है। वर्चस्व और बाजारवाद के दौर में संबंधों, रिश्तों पर खतरा बढ़ा है। साथ ही संस्कृति और भाषा के प्रति लगाव कम हुआ है। तकनीकी तानेबाने के बीच भाषा-संस्कृति को बचाए रखना मौजूदा दौर की सबसे बड़ी चुनौती है।
प्रो.अनिता गोपेश, वरिष्ठ कथालेखिका
पुरस्कारों का हाल ऐसा बदहाल है कि मौजूदा दौर में इसे हासिल करने से मान नहीं बढ़ता बल्कि अपमान जैसा महसूस होता है। दरअसल पुरस्कार कसौटी पर खरे नहीं परे होते जा रहे हैं, ऐसे में उसका पहले जैसा महत्व नहीं रह गया है। कोशिश हो कि किताबें सिर्फ लाइब्रेरियों तक ही सीमित न रहें। अपनी भाषा,संस्कृति को बचाना ही दौर की बड़ी चुनौती है।
बुद्धिसेन शर्मा, वरिष्ठ कवि
‘कौन है, संवेदना है, कह दो अभी घर पर नहीं हैं’ का माहौल ही समाज में मुखरित हो रहा है। निरंतर संवेदनाएं मर रही हैं। यह ऐसा दौर आया है जिसमें बड़े से बड़े मुद्दे हमें न छूते, न ही विचलित करते हैं। ऐसे में साहित्य के माध्यम से हमें हर हाल में, संवेदनाओं, मानवीय मूल्यों,सरोकारों को सहेजना ही होगा, तभी मनुष्यता बचेगी।
यश मालवीय, वरिष्ठ कवि
किताबों से रिश्ता टूटना, सभ्यता से छूटने केबराबर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जहां पहले किताबें हाथोंहाथ ली जाती थीं, वहीं अब दी जाती हैं। आमलोगों में अखबार, किताबें पढ़ने का चलन कम हुआ है। हर जगह नफा-नुकसान के नजरिए से सोचा जा रहा है। और तो और बुद्धिजीवी भी इसके अपवाद नहीं हैं। कलम को हाशिए पर जाने से बचाना होगा।
प्रो.एए फातिमी, वरिष्ठ आलोचक
किताबों की अपनी अहमियत है। किताबें विचार देती हैं जबकि सोशल मीडिया पर कई बार हमें वह वैचारिक दृष्टि और गंभीरता नहीं दिखती है। आमतौर पर यही वजह है कि उर्दू के लेखक सोशल मीडिया से परहेज करते हैं। रचनाकार सच के साथ खड़ा रहे, यही इस दौर की चुनौती है।
असरार गांधी, वरिष्ठ कथाकार