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मौसम गुब्बारों ने बताई हकीकत: जहरीली गैसों ने वायुमंडल में बनाया घेरा, पश्चिमी यूपी में बिगड़ेगी हवा की सेहत

दीपक शर्मा, अमर उजाला, अलीगढ़ Published by: चमन शर्मा Updated Fri, 21 Nov 2025 07:01 AM IST
सार

अब तक कुल 32 गुब्बारे छोड़े जा चुके हैं। हीलियम गैस से भरे ये गुब्बारे हर 15 दिन के अंतराल पर छोड़े गए हैं और ये पृथ्वी की सतह से लगभग 45 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचे। प्रत्येक गुब्बारा चार से पांच घंटे तक हवा में रहा। इन गुब्बारों से प्राप्त विस्तृत डेटा से यह सामने आया है कि इस बड़े दायरे में जहरीली गैसें वातावरण की निचली परतों में ही फंसी रह रही हैं।

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Toxic gases surround the atmosphere
एएमयू में छोड़ा गया मौसम गुब्बारा - फोटो : विवि
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विस्तार
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जहरीली गैसों ने वायुमंडल में बड़ा घेरा बना लिया है। इसका खुलासा एएमयू द्वारा सोलह महीने के भीतर छोड़े गए 32 मौसम गुब्बारों से हुआ है। इन गुब्बारों ने अलीगढ़ और 100 किलोमीटर की परिधि में बसे शहरों के ऊपर की हवा की गुणवत्ता की पूरी रिपोर्ट दी है। इस वैज्ञानिक अध्ययन के बाद एएमयू प्रशासन ने इसरो से भी यह रिपोर्ट साझा की है। रिपोर्ट में बताया गया है कि इस क्षेत्र में उत्सर्जित हो रहीं जहरीली गैसें वायुमंडल से बाहर नहीं निकल पा रही हैं। इससे लोकल वार्मिंग का खतरा बढ़ रहा है।

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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के सहयोग से अलीगढ़ और उसके आसपास 100 किमी की परिधि में बसे शहरों के वायुमंडल की स्थिति जानने के लिए शोध शुरू किया था। इसके अंतर्गत हर महीने दो मौसम गुब्बारे इसरो के वैज्ञानिकों की निगरानी में छोड़े जाते थे।
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क्या है मौसम गुब्बारा
मौसम गुब्बारा एक विशेष प्रकार का उपकरण होता है जिसका उपयोग वायुमंडल के ऊपरी परतों में मौसम संबंधी डेटा (तापमान, आर्द्रता, दबाव, हवा की गति और दिशा) को इकट्ठा करने के लिए किया जाता है। इसमें उपकरण बॉक्स होता है जिसे गुब्बारे के नीचे एक मजबूत तार से लटकाया जाता है। इसे रेडियोसॉन्ड कहा जाता है। इसमें मुख्य रूप से सेंसर और उपकरण होते हैं। इसमें तापमान सेंसर, आर्द्रता सेंसर, दबाव सेंसर, जीपीएस रिसीवर आदि होते हैं।

32 गुब्बारों का विश्लेषण, हैरान कर देने वाले हैं आंकड़े

वायुमंडल की वास्तविक स्थिति को जानने के लिए एएमयू द्वारा इसरो के वैज्ञानिकों की निगरानी में 11 जुलाई 2024 से अब तक कुल 32 गुब्बारे छोड़े जा चुके हैं। हीलियम गैस से भरे ये गुब्बारे हर 15 दिन के अंतराल पर छोड़े गए हैं और ये पृथ्वी की सतह से लगभग 45 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचे। प्रत्येक गुब्बारा चार से पांच घंटे तक हवा में रहा। इन गुब्बारों से प्राप्त विस्तृत डेटा के विश्लेषण से यह सामने आया है कि इस बड़े दायरे में जहरीली गैसें वातावरण की निचली परतों में ही फंसी रह रही हैं।

इस कार्यक्रम से जुड़े एएमयू के भूगोल विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रो. अतीक अहमद कहते हैं कि अध्ययन से पता चला है कि वातावरण में उत्सर्जित हो रही कार्बन मोनो ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, फ्लोरीनीकृत गैसें, सल्फर डाइऑक्साइड आदि पृथ्वी के वातावरण से बाहर नहीं निकल पा रही हैं। जिससे हवा दूषित होती जा रही है। इसका कारण यह है कि ग्रीन हाउस गैसें इस अवरक्त विकिरण (इन्फ्रारेड रेडिएशन) को अवशोषित कर लेती हैं और इसे वापस अंतरिक्ष में जाने से रोकती हैं। यह डेटा क्षेत्र में बढ़ते प्रदूषण और वायुमंडलीय संरचना में आ रहे बदलावों की ओर गंभीर इशारा करता है।

इन शहरों की तैयार हुई रिपोर्ट
अलीगढ़, हाथरस, आगरा, बुलंदशहर, संभल, मुरादाबाद, बदायूं, कासगंज, एटा, गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ, हापुड़, मथुरा और फिरोजाबाद

स्थिति के प्रभाव पर चल रहा अध्ययन

प्रो. अतीक अहमद कहते हैं कि एएमयू के भूगोल विभाग के वैज्ञानिक जो इस कार्यक्रम से जुड़े हैं, अब इन गैसों के फंसे रहने के कारणों और इसके लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभावों पर अध्ययन कर रहे हैं। इन नतीजों से स्थानीय प्रशासन और पर्यावरणविदों को प्रदूषण नियंत्रण के लिए नई और सख्त नीतियां बनाने में मदद मिल सकती है।

लोकल वार्मिंग से खराब हो रही है वायु गुणवत्ता
प्रो. अतीक अहमद कहते हैं कि लोकल वार्मिंग के चलते उस सीमित क्षेत्र में रहने वाले लोगों, पर्यावरण और बुनियादी ढांचे पर गहरा असर देखने को मिल सकता है। वायु की गुणवत्ता खराब होना इसमें सबसे अहम है। स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर में जैसे निर्जलीकरण थकान, हृदय और श्वसन संबंधी समस्याएं , धुंध और सांस लेने की समस्याएं शामिल हैं। इसके साथ ही वातावरण के पूरे परिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ता है। स्थानीय जैव विविधता प्रभावित हो सकती है। क्षेत्र की वनस्पतियों पर भी प्रभाव पड़ सकता है। कृषि की उपज और वहां का फसल चक्र प्रभावित हो सकता है। यही कारण है कि प्रभावित क्षेत्रों में वन क्षेत्र और हरियाली क्षेत्र में लगातार कमी देखने को मिल रही है। क्षेत्र के जल क्षेत्रों पर भी इसका साफ असर देखा जा सकता है। जो अध्ययन का व्यापक विषय है।

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