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मेरठ: आखिर इस शहर के नाम में इतनी धमक क्यों है?

अमर उजाला नेटवर्क, मेरठ Published by: मोहम्मद मुस्तकीम Updated Fri, 12 Dec 2025 05:46 PM IST
सार

Foundation Day Of Meerut Unit: 12 दिसंबर को अमर उजाला की मेरठ यूनिट का स्थापना दिवस है। इस अवसर पर हम आपके साथ साझा कर रहे हैं अमर उजाला के पूर्व वरिष्ठ संपादकों के शानदार संस्मरण, जो कि सुनहरी यादों को समेटे हुए हैं।

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Meerut: Why is there so much shine in the name of this city?
राजीव सिंह - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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मेरठ यानि वह शहर जिसका नाम सामने आते ही एक कौतूहल सा तुरंत जागता है कि यह शहर है कैसा? इस शहर की संस्कृति क्या है, इसकी तासीर क्या है, यहां के लोग कैसे हैं? ऐसे तमाम सवाल सामने आते हैं। लेकिन ऐसा है क्यों? किसी अन्य शहर का नाम सामने आने पर तो ऐसी कोई उत्सुकता नहीं होती है। असल में यह शहर है ही एक अलग रंग का, जो अपनी अलग ही रवायत रखता है। इस शहर की पहचान पर उठने वाले सवालों को लेकर कई जवाब हो सकते हैं। जैसे 1857 की क्रांति का जनक है, पश्चिमी यूपी की क्राइम कैपिटल है, गन्ना बेल्ट से उपजी राजनीति का मुख्य केंद्र है या देश को तमाम खेल प्रतिभाएं देने के साथ ही दुनियाभर में प्रसिद्ध क्रिकेट बैट बनाने का मुख्य केंद्र है। हॉलीवुड फिल्मों के वॉरियर की ड्रेस के साथ बैंड बनाने वाली कंपनियों का गढ़ रहा है यह शहर। देश की पहली रैपिड रेल मेरठ से दिल्ली के बीच चली है। यानि हर जवाब में आप एक जीवंतता कह लें या एक गौरव जैसी अनुभूति आप एक अलग धमक के साथ महसूस करेंगे। 
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वैसे असल में मेरठ को एक अकेले शहर के रूप में नहीं देखा जाता है। इससे सटे मुजफ्फरनगर, बागपत, शामली, बिजनौर और सहारनपुर को जोड़ते हुए इस शहर या क्षेत्र की परिकल्पना की जाती है। मेरठ में पहली बार मेरा आना 2013 की फरवरी में हुआ। आने से पूर्व मेरे सीनियर और शुभचिंतकों ने आगाह किया कि वहां किसी से झगड़ा मत मोल ले लेना। अब यह सलाह मेरठ की कथित ख्याति के मुताबिक थी या यूं ही कही बात, यह तो नहीं कह सकता लेकिन कुल साढ़े छह साल के दौरान काम में जो उत्साह, जो आनंद मेरठ में आया वह अविस्मरणीय है। अखबार में रहते हुए वैसे तो कई राज्यों के शहरों में रहा लेकिन इन सबसे अलग मेरठ की बात ही कुछ खास है। इस शहर में यदि आपने कुछ समय बिता लिया तो निश्चय ही यह आपसे और आप इस शहर से प्रेम करने लगेंगे। मेरठ को लेकर तमाम मिथ हैं। लेकिन इसकी कुछ ऐसी खासियत हैं जो इसे हर शहर से अलग बनाती है। आर्थिक रूप से मजबूत यहां हर कुछ अपने शीर्ष या यूं कहे लें कि एक नजीर के साथ होता है। अपराध भी होगा तो ऐसा, जिसकी क्रूरता से आप भय से सिहर जाएंगे। लेकिन अपराधों के ठीक उलट इस शहर ने शिक्षा, कृषि उद्योग-व्यापार, खेल, कला-संस्कृति और सैन्य सेवाओं में ऐसी प्रतिभाओं जन्म दिया है जिनका देश में योगदान शीर्ष स्तर पर है। 
 
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जब मैं पहली बार मेरठ आया तो देश में राजनीतिक बदलाव की सुगबुगाहट दिखने लगी थी। इसे हवा दी, इसी साल अगस्त में हुए मुजफ्फरनगर के दंगे ने। दंगों के बाद जैसा कि होना था पश्चिमी यूपी का यह पूरा समृद्ध गन्ना बेल्ट एक सियासी लैब बन गया और हर कोई अपनी राजनीतिक रिसर्च यहां करने लगा था। गुजरात में सांप्रदायिक संघर्ष के बाद मुजफ्फरनगर की यह हिंसा देश का दूसरा सबसे बड़ा दंगा माना गया। मुजफ्फरनगर, शामली और आसपास के जिलों में इस हिंसा का फैलाव होने लगा था। चूंकि सांप्रदायिक संघर्ष का फैलाव ग्रामीण इलाकों में ज्यादा था इस वजह से खबरों के बाहर निकलने और असलियत सामने आने में वक्त लगा। उस समय अमर उजाला के ही रिपोर्टर पूरे साहस के साथ हिंसाग्रस्त ग्रामीण इलाकों से यह सच्चाई देश के सामने सबसे पहले लाए कि क्षेत्र के अंदरूनी ग्रामीण इलाकों में हालात बेहद भयावह हैं और तमाम नृशंस हत्याओं, लूटपाट, आगजनी की वजह से हजारों की संख्या में लोगों को अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा है। इस सच्चाई के आने के बाद ही दिल्ली से लेकर लखनऊ तक हड़कंप के हालात हो गए। पहली बार यह खबर आने के बाद केंद्र और राज्य सरकार की नींद टूटी और दंगे से प्रभावित लोगों की सुरक्षा के लिये बड़ी संख्या में कैंपो की व्यवस्था की जाने लगी। 

इसके बाद ही मेरठ से रातोंरात सेना की टुकड़ियां हालात संभालने के लिये दंगा प्रभावित इलाकों में भेजी गयीं क्योंकि हालात पुलिस के नियंत्रण से बाहर हो गए थे। पहली बार दंगे शहरी इलाकों के बजाय गांवों में ज्यादा हो रहे थे, इसलिये इस पर काबू पाना भी बेहद जटिल हो गया था। जब नरेंद्र मोदी गुजरात से निकल कर देश की राजनीति में छाने के प्रयास में लगे थे तो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रचार की शुरुआत के लिये नरेंद्र मोदी ने मेरठ को ही चुना और भाजपा की पहली चुनावी रैली मेरठ में आयोजित की गयी। मेरठ की रैली से ही यह संकेत साफ मिलने लगे थे कि देश में अब राजनीतिक बदलाव होना लगभग तय है। 
 

चुनाव प्रचार के अंतिम दिन हम बड़ौत में थे और वहां पर रालोद की अंतिम मुख्य रैली थी। इसी दिन भाजपा की तरफ से हेमा मालिनी की सभा थी। जाट राजनीति के गढ़ इस इलाके में चौधरी अजित सिंह की रैली में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि हम मैदान के मुख्य गेट तक भी नहीं पहुंच पाए और पास के एक मकान की छत से रैली को देखा। हेमामालिनी की जनसभा फीकी थी। सबकी जुबां पर था कि चौधरी को कोई हरा नहीं पाएगा। लेकिन दंगों ने बेहद चुपचाप ऐसा सामाजिक ताना-बाना बुन दिया था कि भारी उलटफेर हुए और चौधरी अजित सिंह सिर्फ न चुनाव हारे बल्कि दूसरे नंबर पर रहे सपा के गुलाम मोहम्मद से पिछड़ कर तीसरे नंबर पर पहुंच गए। देश के अन्य हिस्सों से भी ऐसे ही चुनाव परिणाम आए थे और इसके पीछे थी मोदी की मेरठ रैली से भाजपा के पक्ष में निकली वह पहली लहर जिसे मुजफ्फरनगर दंगों से निपटने के गलत फैसलों ने जन्म दिया।

बेटे के मौत के बाद भी पिता की अपील
मेरठ की बात की जाए तो शहरी इलाके की एक घटना को नहीं भूला जा सकता जिसमें एक पिता के सब्र और समझदारी ने पूरे शहर को जलने से बचा लिया था। सुभाष नगर इलाके से महज 13 साल का किशोर करण कौशिक लापता हो गया था। असल में करण की हत्या करके उसका शव एक कब्रिस्तान में दफना दिया गया था। मुजफ्फरनगर दंगे की तपिश बरकरार थी और इस घटना का खुलासा बेहद संवेदनशील मेरठ को हिंसा की आग में झोंक सकता था। लेकिन करण के पिता राकेश कौशिक, इस निर्मम हत्या से बेहद उग्र हो गए लोगों के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए और बोले मेरा बेटा तो चला गया लेकिन मेरठ को जलने से बचा लो। इकलौते पुत्र को खोने के बावजूद इस पिता के इस संयम को यह शहर कभी भूल नहीं सकता है।
- राजीव सिंह
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