उमरिया जिले की दोपहरी में जब शहरों के लोग एसी और पंखों के नीचे राहत महसूस कर रहे होते हैं, उसी वक्त बंधवा टोला के आश्रित ग्राम मझौली के लोग सिर पर बर्तन उठाए, पथरीली पगडंडियों और घने जंगलों के बीच से पानी ढोने निकलते हैं। जिंदगी की इस जंग में उनके पास न कोई सुरक्षा है, न कोई सुविधा, बस बूंद-बूंद पानी के लिए एक अथक संघर्ष है।
यह वही गांव है, जिसे 'हर घर नल जल योजना' के तहत स्वच्छ पेयजल का सपना दिखाया गया था। सरकारी कागजों में मझौली जैसे गांव 'जलयुक्त' घोषित हो चुके हैं, पर जमीनी हकीकत में लोग आज भी जान जोखिम में डालकर दो से 2.5 किलोमीटर दूर जंगली जानवरों के तालाबों से पानी भरने को मजबूर हैं।
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संवाददाता जब मझौली गांव पहुंचे और एक महिला से पीने के लिए पानी मांगा तो उसने दुख भरे स्वर में मना कर दिया। उसकी आंखों में छिपा दर्द साफ झलक रहा था। उसने कहा, हम जंगल से जान हथेली पर रखकर पानी लाते हैं, ताकि अपने बच्चों की प्यास बुझा सकें। यहां पानी मांगना, जैसे किसी से उसकी सांसें मांगना हो। गांव वालों का कहना है कि सरकारी अमले हर साल आते हैं, सर्वे करते हैं, रिपोर्ट बनाते हैं, बजट भी मंजूर होता है। लेकिन नल जल का सपना अब भी अधूरा है। बार-बार वादे होते हैं, लेकिन हर गर्मी गांव वालों को सिर्फ इंतजार और पीड़ा मिलती है।
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मझौली की कहानी अकेली नहीं है। उमरिया जिले के दर्जनों गांवों में लोग इसी त्रासदी से जूझ रहे हैं। यह उन सरकारी योजनाओं का असली चेहरा है, जो फाइलों से बाहर नहीं निकल पातीं। आज मझौली के जंगलों में सिर्फ पानी नहीं खोजा जा रहा, वहां इंसानी हौसले और हक़ की तलाश भी हो रही है। सरकार और जिम्मेदार अधिकारियों से अपील है कि वे इन इलाकों की पीड़ा को समझें और सिर्फ कागजी योजनाओं पर नहीं, जमीन पर काम करें। क्योंकि पानी सिर्फ जीवन नहीं, एक हक़ है। और अब इस हक़ की आवाज़ को और देर तक नहीं दबाया जा सकता।