चुनावों में वोट बढ़ना घाटे का भी सौदा साबित हो सकता है। इसकी बानगी बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा और राजद के प्रदर्शन में देखी जा सकती है। बीते तीन चुनाव में जब-जब इन दलों का वोट प्रतिशत बढ़ा, उनकी सीटों की संख्या कम हो गई। इसके उलट जब-जब वोट प्रतिशत घटा, सीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गई। हालांकि ऐसा गठबंधन के कारण दलों के हिस्से में चुनाव लड़ने के लिए आई सीटों के संख्या के कारण हुआ। मसलन 2010 के चुनाव में राजद को भाजपा से 2.35 फीसदी ज्यादा (18.84 फीसदी) मत मिले। मत प्रतिशत के लिहाज से राजद प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। हालांकि इस चुनाव में पार्टी को महज 22 सीटें ही नसीब हुईं। इसके अगले चुनाव में राजद के मत प्रतिशत में .44 फीसदी (18.40 फीसदी) की कमी आई, मगर उसकी सीटों की संख्या 22 से बढ़ कर 80 हो गईं। बीते चुनाव में राजद के मत प्रतिशत में करीब 5 फीसदी की बड़ी बढ़ोत्तरी हुई, मगर सीटों की संख्या 80 से घट कर 75 रह गईं।
बीते तीन चुनावों में भाजपा के साथ भी यही स्थिति रही। मसलन 2010 में भाजपा को 16.49 फीसदी मत और 91 सीटें हाथ लगीं। इसके अगले चुनाव में भाजपा के मत प्रतिशत में 8 फीसदी की बड़ी बढ़ोत्तरी हुई मगर पार्टी के सीटों की संख्या घट कर 53 रह गई। बीते विधानसभा चुनाव में 2015 के मुकाबले भाजपा के मत प्रतिशत में 5 फीसदी की कमी आई, मगर सीटों की संख्या 53 से बढ़ कर 74 हो गई। आजादी के बाद कांग्रेस विकल्पहीन थी। हालांकि कांग्रेस कभी पहले चुनाव के प्रदर्शन के आसपास नहीं पहुंच पाई। 1952 के चुनाव में संयुक्त बिहार में कांग्रेस को 239, 1957 में 210 सीटें हाथ लगी। इसके बाद पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1985 में रहा जब उसे 196 सीटें मिली। हालांकि 1990 के मंडल के दौर के बाद पार्टी मुख्य लड़ाई से न सिर्फ बाहर हो गई, बल्कि उसके लिए पहचान का संकट भी खड़ा हो गया।