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खेतों में उग आया काला सोना, 4980 किसान होंगे मालामाल, देखिए कैसे होती है अफीम की खेती
बाराबंकी में खेत एक बार फिर काले सोने यानी अफीम की खेती से चमक रहे हैं। सरकार द्वारा जारी नई लाइसेंस सूची ने साफ कर दिया है कि प्रदेश में अफीम उत्पादन की सबसे बड़ी धुरी अब भी बाराबंकी ही है। इस बार प्रदेश के कुल छह जिलों के 4980 किसानों को अफीम की खेती की अनुमति मिली है। इनमें से 4812 किसान अकेले बाराबंकी जिले के हैं। इनमें से 758 किसान चीर लगाकर अफीम का दूध निकालेंगे, जबकि 4422 किसान केवल डोडा (फसल का ऊपरी हिस्सा) विभाग को जमा करेंगे। डोडा आधारित लाइसेंस धारकों को सीपीएस श्रेणी में रखा जाता है। अफीम निकालने वाले किसानों की तुलना में सीपीएस लाइसेंस धारकों की संख्या काफी अधिक है। इससे यह संकेत मिलता है कि सरकार नियंत्रित ढंग से उत्पादन बढ़ाते हुए जोखिम कम रखना चाहती है।
अफीम की फसल नवंबर के अंतिम सप्ताह से दिसंबर के पहले सप्ताह तक बोई जाती है। इस बार खेतों में बोआई पूरी हो चुकी है। फसल के कोमल अंकुर निकल आए हैं। खेतों में फैली यह हरी पट्टी किसानों की उम्मीदों को और हरा कर रही है। जनवरी तक फसल पूरी बढ़त पकड़ लेती है। मार्च-अप्रैल में दाना पकने पर चीरा लगाने का काम शुरू होता है। चीरा से निकलने वाला सफेद दूध ही सूखकर अफीम बनता है। सीपीएस श्रेणी के किसानों को चीर लगाने की जरूरत नहीं होती। वह पूरा डोडा काटकर विभाग को सौंप देते हैं। आमतौर पर एक औसत किसान प्रति बीघा 1 लाख से 1.25 लाख रुपये तक की आय कर लेता है।
अफीम खेती की वास्तविक स्थिति जानने के लिए हरख ब्लॉक के भगवानपुर गांव का रुख किया गया। यहां कई दशकों से अफीम की खेती होती आ रही है। किसान सुरेंद्र अपनी पत्नी के साथ खेत में खरपतवार निकालते मिले। सुरेंद्र बताते हैं कि फसल को सबसे अधिक नुकसान बंदरों, मवेशियों और तेज हवाओं से होता है। कई बार रात में मवेशी खेतों में घुस आते हैं, इसलिए किसान खेतों के चारों ओर बाड़ लगाते हैं। कई जगह झटका मशीन भी लगाई जाती है। उन्होंने बताया कि यह फसल जितनी कीमती है, उसकी रखवाली उतनी ही कठिन है।
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