होली के अवसर पर शहर में नागौरी सेठ-सेठानी स्वांग निकाला गया, जिसने पूरे शहर में हंसी-मजाक और रंगों की फुहारें बिखेर दीं। हर साल की तरह इस बार भी होली से एक दिन पहले बुधवार को बाजारों में यह परंपरागत स्वांग निकला, जिसे देखने के लिए शहरवासी बड़ी संख्या में उमड़े। इस दौरान सेठ, सेठानी, मुनीम और फकीर के बीच मजाकिया संवाद होते रहे, जिससे लोग हंसी से लोटपोट हो गए।
यह अनूठी परंपरा पहल सेवा संस्थान द्वारा पिछले 19 वर्षों से निभाई जा रही है, जो होली के त्योहार में अलग ही रंग भर देती है। स्वांग काशीराम चौराहा, मुरली मनोहरजी महाराज मंदिर से शुरू होकर शहर के प्रमुख बाजारों से होते हुए कंपनी बाग तक निकला। इस स्वांग की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि ऊंट पर सवार सेठ-सेठानी जब बाजारों में निकले, तो हर किसी की निगाहें उन पर टिक गईं। हर कोई इस दृश्य को देखकर हंसी-मजाक में शामिल हो गया।
स्वांग के दौरान न केवल सेठ-सेठानी बल्कि लोहार, बाजीगर, जादूगर, साधु और डकैत जैसे अन्य पात्र भी दिखाई दिए। हालांकि इनमें से नागौरी सेठ का स्वांग सबसे ज्यादा लोकप्रिय रहा। शहरवासियों को इस अनोखे स्वांग का सालभर इंतजार रहता है और जब यह निकाला जाता है, तो बाजारों में चहल-पहल बढ़ जाती है।
लोगों का कहना है कि इस तरह के आयोजन सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करने का एक माध्यम भी है। कलाकारों ने इस बार मोबाइल की लत से बचने और आपसी भाईचारे को बढ़ाने का संदेश दिया।
लोगों को यह बताया गया कि अत्यधिक मोबाइल का उपयोग एक लत की तरह हो गया है, जिससे बचना जरूरी है। साथ ही इस स्वांग ने होली के मौके पर सभी धर्मों और समुदायों को एकता के सूत्र में बांधने का संदेश भी दिया। इस अवसर पर बीजेपी जिलाध्यक्ष अशोक गुप्ता, जितेंद्र गोयल, सुनील चौधरी समेत कई गणमान्य लोग मौजूद रहे।
बताया जाता है कि यह स्वांग की कई सालों से मनाया जाता आ रहा है। यह परंपरा नागौर के एक सेठ से जुड़ी हुई है, जो अपनी सेठानी को लेकर शहर भ्रमण पर निकलता था और उगाही करता था। इस दौरान एक फकीर से सेठ की मुलाकात हुई, जिसे उम्मीद थी कि सेठ उसे कुछ देगा, लेकिन सेठ ने कुछ नहीं दिया। इसी बीच सेठानी और फकीर की नजरें मिलीं और दोनों एक-दूसरे के साथ जाने को तैयार हो गए लेकिन अंत में फकीर ने सेठानी को लेने से इनकार कर दिया और बोला कि उसे सिर्फ दान चाहिए, न कि सेठानी। यह कहानी आज भी मजाकिया अंदाज में स्वांग के रूप में प्रस्तुत की जाती है। हालांकि देशभर में स्वांग परंपरा लगभग विलुप्त हो चुकी है, लेकिन अलवर शहर इसे आज भी जीवित रखे हुए है।
हर साल होली से एक दिन पहले किए जाने वाले इस आयोजन को देखने के लिए स्थानीय नागरिकों के अलावा पर्यटक भी बड़ी संख्या में शामिल होते हैं।